Monday, December 15, 2008

एक आवाज़

available amar:

पंखों को मत खरोचो, पंखो में क्या मिलेगा
उड़ जायेंगे हम यूं ही, गर जज़्बा बुलंद होगा:

गिर भी गए अगर हम, उन बुलंदियों को छूकर;
तुम ही कहोगे देखो, बुलंदियों से गिरा होगा:

हम तो सफ़र करेंगे शोलों में ढल के लेकिन;
हम छू गए जो तुमसे अपनी कहो क्या होगा..........

अमर नाथ ललित

Sunday, November 16, 2008

चाँद पर तिरंगा

सवेरे सवेरे
चाय वाली दुकानपर
किसी ने बताया,
"चाँद पर पहुँचा तिरंगा"
मैंने देखा,
बगल मे खड़ा था एक बालक
भूखा और नंगा
किसी ने बताया,
भारतीय अर्थव्यवस्था ने
मंदी के इस दौर मे भी
apni धाक जमाई
दूर खड़े मजदूर का चेहरा बता रहा था
देश मे कितनी बढ़ गई है महंगाई
अख़बार का कोई पन्ना,
अफगानिस्तान मे बुनियादी संरचना में,
भारत के योगदान को बता रहा था
सामने की मुख्य सड़क पर भरा गन्दा पानी
इस उपलब्धि को मुंह चिढा रहा था
देश मे लगातार अरबपति बढ़ते जा रहे हैं
पर दिनों दिन विदर्भ व बुंदेलखंड में
किसान भूख से मरते जा रहे हैं
हम सूचना प्रौद्योगिकी मे कितना आगे बढ़ गए
पर पदोश मे घटी घटना से अपरिचित रह गए
हम नाभिकीय उर्जा के लिए ज़ोर लगा रहे हैं
पर अपने पन बिजली केन्द्रों को ही सही नही कर पा रहे हैं ........
.....................????????????????????????

Saturday, November 15, 2008

अजनबी रिश्ते

काश
हम फ़िर से बन जाते अजनबी
वो अजनबी
जो अनजान थे एक दूजे से
जान पहचान के बाद भी।
वो अजनबी जो भटका करते थे घंटों
एक दूजे से मिलने को ,जानने को।
कितना अनूठा था,
वो अजनबी रिश्ता
जब हम जानते थे बस दूसरे के सदगुणोंको ,
वो रिश्ता ,
जिसमे हम एक दूजे की खूबियों को
अतुलनीय समझा करते थे
कितने हसीं थे वो अजनबी लम्हें
जब हम घंटों बिता देते थे,एक दूजे को सुनने में
जब दिन निकल जाते थे,एक दूजे की हौंसला अफजाई मे

फ़िर
बढीं नजदीकियां हमारे बीच
एक दूजे को खूब जांचा परखा हमने
और फ़िर इस जांच परख मे ही रिश्तों मे प्रगाढ़ता बढ़ी
और फ़िर उफ़
क्या हुआ ऐसा कि
हम सिर्फ़ एक दूजे को परखने मे लग गए
एक दूजे को इतना पहचान लिया हमने
कि
खूबियों से अधिक कमियां दिखने लगीं दूजे कि
हम जुट गए गलतियाँ खोजने मे,दूसरे की
ताकि
कोस सकें एक दूजे को हम
और
वक्त गुजार सकें
और अब जब की हम दोनो को ही
अहसास है इन बेहद नजदीकी दूरियों का
तलाशना है हमें फ़िर से एक अटूट रिश्ता
लगता है अब हमें
कितने अच्छे थे वो अजनबी रिश्ते
काश
हम बना पायें अपने बीच
फ़िर वही अजनबी रिश्ते
ला पते फ़िर वो लम्हें,
खोज पातेफ़िर वही कौतूहल
फ़िर वही तत्परता , वही उमंग
बन पते फ़िर वही अजनबी।

उनकी नफरत

जरूरत नहीं मुझे किसी के साथ की
हसरत हूँ मैं ख़ुद सारी कायनात की
दूर जाकर मुझसे वो समझते हैं कि
मिट गया हूँ मैं
गर महसूस कर के देखेंगे तो जान जायेंगे कि
आज भी उनकी साँसों के सिवा कहीं नहीं गया हूँ मैं
आज भी वो आईने पे
अपनी साँसों की स्याही से
नाम मेरा लिखते हैं
कहते नहीं हैं मुझसे पर
शाम के सूरज के हाथों मुझे अपनी
आंखों का हाल लिखते हैं
हर आते जाते मुसाफिर में
चेहरा मेरा ढूंढते हैं
ठान रखी है मुझसे फ़िर न मिलने कि
पर वो ठिकाने मुझसे मिलने के हर जगह ढूंढते है
जाने कब ये मानेंगे कि
वो आज भी मुझमे अपने
आने वाले कल को ढूंढते हैं

Sunday, October 19, 2008

वक्त और दोस्त

वक्त ने हमको आस्तीन के सांप दिखाए हैं,
दूसरों पे भरोसे मे हमने अपने हाथ जलाये हैं,
हम बैठ कर इंतज़ार करते रहे दुश्मनों का,
पर अब मेरी हस्ती मिटाने दोस्त ही आए हैं।

खतरनाक मानसिकता

इंडिया टूडे का १५ अक्टूबर का अंक पढ़ा। इसमे दिल्ली में विस्फोट के आरोपी तीनो अभियुक्तों जिया-उर-रहमान,शकील,साकिबनिसार की बात पढ़ी। उस बातचीत को पढने के बाद मैं सिहरउठा। इस बातचीत मेंजो एक बात साफ़ नज़र आती है वह ये किइन तीनो ने धमाकों में अपना हाथ मान लिया है। और यह भी कि उन्हें इसका कोई पछतावा भी नहीं है।
अब सवाल यह है कि अगर ये तीनो अपना जुर्म मान रहे हैं और उस पर किसी भी तरह की शर्मिंदगी नहीं महसूस कर रहे हैं तो फ़िर इनके पैरोकार राजनेता बिनाह पर यह महसूस कर रहे हैं की देस में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर उन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है। इन लोगों ने मुठभेड़ में मारे गए आतिफ के इन विस्फोटों में शामिल होने की बात भी मानी है। इस मुठभेड़ को फर्जी मानने वाले मानवाधिकारीयों व राजनेताओ से मैं अपील करूंगा की मात्र एक समुदाय के होने के कारणअगर इन लोगों को दोषी नही माना जा सकता तो सिर्फ़ उस समुदाय विशेष के होने से ये निर्दोष भी नहीं हो जाते।राजनेताओं को अपनी वोट की राजनीति से उठ कर देश के बारे में भी सोचना चाहिए।मानवाधिकार संगठनों को धमाकों में मारे गए लोगों जिसमे शायद मुस्लिम भी थे और आम जन का जो इन घटनाओं से दहल गए है का भी ख़याल करना चाहिए।
ज़रा रहमान के उन शब्दों पर गौर करें जिसमे उसने माना है की वह उस बाज़ार में भी dhamaake कर सकता है jahan उसकी माँ के होने की sambhavna है। इससे उसके dimaag मे बसे खतरनाक मनसूबे पता चलते हैं। इस से पता चलता है की ऐसे लोग किसी भी मज़हब के हों दुश्मन ये इंसानियत के हैं। उस इंसानियत के जिसकी बेहतरी के लिए मानवाधिकारी मरे जा रहे हैं।ऐसे लोगों की वकालत करके हम मात्र इंसानियत का नुकसान करते हैं। इस तरह के लोगों की सिर्फ़ निंदा की जा सकती है और कुछ नहीं।
फ़िर भी अगर आपको कुछ ग़लत लगता है तो इंतज़ार करिए मानवाधिकारी जाँच कर रहे हैं इतना हो हल्ला मचाने से सिर्फ़ और सिर्फ़ समाज मे विघटन पैदा होता है और कुछ नहीं। आम जनता को इस तरह के वक्तव्यों जिनमे मज़हबी आधार पर अपील की जाए से बचने की ज़रूरत है।
वरना याद रखिये अगर इस मानसिकता के लोग खुले घुमते रहे तो अगला धमाका आपके पास भी हो सकता है। उन धमाकों मे किसी भी मज़हब का कोई भी हो सकता है, हाँ भाई नेता जी भी और मानवाधिकारी भी या फ़िर उनका कोई सगा सम्बन्धी।

तो आइये हम सब आतंक का विरोध करें एक साथ,
हिंदू हो या हो मुस्लिम उठे अब सबका हाथ,
पस्त कर दो अब ऐसे मंसूबों को,
जो अंजाम देते हैं ऐसे विस्फोटों को।


Friday, October 10, 2008

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हर मोड़ पे प्रश्नचिन्ह लगाती रही,
राहों में हैं दुश्वारियां पल पल ये बताती रही,
जिस भी राह पर हम चले सुलझाने को ज़िन्दगी,
हर वो राह एक उलझन बढाती गई।

Monday, September 22, 2008

real and truth

दिखावे की मानसिकता

राष्ट्रपति के आगमन के लिए आनन् फानन मे बनाईजा रही सड़क

इस काम मे लगा एक बाल मजदूर

ज़मीनी हकीकत

लविवि मे राष्ट्रपति के आगमन पर कला संकाय को तो बहुत सजाया गया पर वहीं बगल मे ही स्थित इतिहासिक लाल बारादरी भवन की दुर्दशा साफ़ देखि जा सकती है

in search of boom

security alart for convocation in lu.

president pratibha patil is coming 23rd sep.

Wednesday, September 10, 2008

साथी हाथ बढ़ाना

step towards green campus

student and teachers of jmc department lu planting trees

for a good future

vc of lu in tree plantation program on techers day

विवि की प्रवेश प्रकिया पर प्रश्नचिन्ह

लखनऊ विवि की सत्र ०८-०९ के लिए हुई प्रवेश प्रक्रिया मे इस बार हुई अफरा तफरी व घोर अव्यवस्था ने पारदर्शिता से प्रवेश करवाने के विश्वविद्यालय प्रशासन के सारेदावों की असलियत सामने ला दी। पूरी प्रवेश प्रक्रिया प्रवेशार्थी छात्रों के लिए कई परेशानी खड़ी करती दिखी। प्रवेश प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही,व्यावसायिक पाठ्यक्रमों मे प्रवेश को लेकर काफी उठापटक हुई, फार्म के साथ दी गई सूचना पुस्तिका सारी जानकारी देने की जगह विवादस्पद निर्देशों से युक्त थी। कई सारी सूचनाएँ छात्रों को समयानुसार नही दी गईं जिससे कुछ छात्र तो फार्म न दाल सके और कुछ मेरिटलिस्ट मे होते हुए भी प्रवेश से वंचित रह गए।

काउंसिलिंग के समय का नज़ारा देखने योग्य था,इसे देख कर कोई भी सहज ही प्रवेश प्रक्रिया मे हो रही गड़बडियों का अंदाजा लगा सकता था। कितनी सीटें भरी व कितनी खली हैं इसकी कोई अधिकारिक जानकारी पाना बहुत ही कठिन काम था। नियमित सीट के लिए योग्य छात्र को स्ववित्त पोषित सीट दी गई कई तो खड़े रहे और उनका नाम तक नहीं पुकारा गया। मेरिट सूची मात्र एक या दो दिन पहले निकली जाती थी ।

अगर विवि इसके लिए बहानेबाजी करता है तो उसे अपने ही इतिहास के पन्ने पलट कर पिचले सत्र मे नए परिसर मे हुई व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की प्रवेश प्रक्रिया को देखना चाहिए वो शायद नजीर का काम करेगा। क्योंकि पिछाले साल से विवि के प्रति लोगों का जो नजरिया बदला था वह फ़िर पुरानी पटरी पर लौट गया और वाही ढ़ाक के तीन पात रह गए।

सोचने वाली बात है की अगर इसी तरह चला तो कितने मेधावी छात्र विवि मे प्रवेश लेना चाहेंगे , हमे बनारस व दिल्ली विवि की तरह के छात्र क्यों मिलेंगे। इसलिए अगर विवि को उसका गौरव लौटना है तो इन सब अव्यवस्थाओं पे काबू पाना ही होगा।

Sunday, September 7, 2008

सच कहते न बना

लोगों ने जब तेरे बारे में पुछा
तो मुझसे सच कहते न बना
कह तो देता कि शायद
तू बेवफा हो गया है
पर तेरी रुसवाई का इल्ज़ाम
अपने सर लेते न बना
काश कि तू सामने होता
तो निकाल लेता दिल का गुबार
गैरों के सामने तुझे बुरा कहते न बना
कभी सामने बैठोगे तो सुनाऊंगा
हाल-ए-दिल और किसी से कहते न बना
तुने तो बना लिया है एक गैर अपना
मुझसे तो तेरे जाने के बाद
किसी को भी अपना कहते न बना
लोगों ने जब तेरे बारे में पुछा

तो मुझसे सच कहते बना

कह तो देता कि शायद

तू बेवफा हो गया है

पर तेरी रुसवाई का इल्ज़ाम

अपने सर लेते बना

काश कि तू सामने होता

तो निकाल लेता दिल का गुबार

गैरों के सामने तुझे बुरा कहते बना

कभी सामने बैठोगे तो बताऊंगा

दर्दे-दिल और किसी से कहते बना





Saturday, September 6, 2008

एक संदेश

बस अपनी धुन मे रहता हूँ,
अपनी बात सुनाता हूँ,
जीवन के हर इकपल को मैं
मस्ती से जीता जाता हूँ,
कुछ खुशियाँ हैं, तो कुछ गम भी हैं,
कुछ खोया है कुछ पाया है,
इस छोटी सी दुनिया मे धूप छांव का साया है।
पर किसे फिकर,न कोई डर,
क्या कुछ होने वाला है,
मंजिल कि खोज मे निकल पड़ा जो,
वो राही तो मतवाला है।
अब नयी मंजिलें छूनी हैं,
कुछ रचने नए फ़साने हैं,
छोड़ पुरानी बातें हमको,गाने नए तराने हैं।
पग पग आगे बढ़ना है,
बाधाओं से लड़ना है,
भूली बिसरी यादें ले संग,नए दौर मे चलना है।
हर तरफ़ जहाँ हों फैली खुशियाँ,
गम का जहाँ न मिले निशां,
इक ऐसी दुनिया रच डालें हम,
जहाँ हो सबका बस इक जहाँ।
बस यही संदेशा देने सबको,दूर गाँव से आया हूँ,
अमन,शान्ति और विश्व बंधुत्व का एक संदेशा लाया हूँ।

Thursday, August 28, 2008

harsh in studio of AAKASVANI

prize distribution

BACHPAN

studentes of mmc department lu in studio of AAKASVANI LKO

बाढ़ ki विभीषिका

हँसी वादियों में........


पहाडों की हँसी वादिओं में

वह स्वछन्द हवा और

चिडिओं की चहचाहट के बीच

मेरा अन्तर मन कुछ कह रहा था

जिसकी अंतस ध्वनि समझाने में

अपने आपको असमर्थ पा रहा था

मन की उथल-पुथल के बीच

अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए

कोई निर्णय नही ले पा रहा था

ऐसा क्यों हो रहा था

प्रश्नों के जबाब पाने को बेताब था

और देख रहा था उन वादिओं की ओर

जो थी मेरे आस-पास

जो दे रही थी दिलासा

बस इसके बाद क्या था

एक ठंडी सी बयार चलने लगी

और मन पुलकित सा हो गया

फ़िर मैं समझ गया

और मन शांत हो गया

ऐसा एहसास होने लगा कि

इस भरी दुनिया में प्रकृति का सानिध्य

पाकर मैं प्रसन्न था

दूसरों को सुख देती प्रकृति आज

ख़ुद अपने अस्तित्व को लेकर

संरक्षण की कर रही है गुहार ..........


सौजन्य से :- अशोक गंगराडे

Sunday, August 24, 2008

Monday, August 18, 2008

joy of nature

युवा दिवस पर ऐड्स जागरूकता रैली

लखनऊ विश्व विद्यालय मे युवा दिवस पर ऐड्स जागरूकता के लिए रैली निकली गई

its dangerous

चलती ट्रेन से न उतरें

दौलत न देना मुझको

दौलत न देना मुझको,शोहरत न देना मुझको
अपने वतन की खातिर,जान लड़ा दूँ अपनी
ऐ मेरे मौला ऐसी नीयत तू देना मुझको,

देश के हित की खातिर मैं जान लड़ा दूँ अपनी
देश पे मैं मिट जाऊं वो हिम्मत देना मुझको

रिपु का मैं मर्दन कर दूँ सर धड से जुदा मैं कर दूँ
देश पे हो जाऊ न्योछावर ये वर तुम देना मुझको

न हिंदू कोई पुकारे न मुस्लिम कोई पुकारे
भारत का मैं कहलाऊ ऐसी सूरत देना मुझको

सीमा पर जब मैं जाऊँ हाथों मे तिरंगा देना
मरने से पहले कुछ बूँदें गंगा की देना मुझको

मैं भारत माँ का जाया है सब कुछ यहीं पे पाया
जहाँ हो इस मिटटी की खुशबू ऐसी जन्नत देना मुझको

देश का गौरव गाऊँ,आज़ादी का गीत सुनाऊँ
भारत की करू मैं जय जय वो वाणी देना मुझको

आओ भारत पर्व मनाएं

- चलो फ़िर से तिरंगा फहराएँ,हम सब भारत पर्व मनाएं,
फ़िर आई है वो शुभ बेला,आओ इंकलाबहम गएँ।

-याद करें हम उन वीरों को,उनका जयगान हम गायें
देश की खातिर जो मर मिटे,उनको श्रद्धासुमन चढाएं।

-याद करें हम भगत सुभाष को,अपने दिल मे उन्हें बसायें,
रानी,तात्याकी वीर गाथाएं,आओ सबको याद दिलाएं।

-देश पे मर मिटने की,राणा की परिपाटी हम पायें,
गाँधी नेहरू का हो सच सपना,इस संकल्प को हम दोहराएँ।

-हो सबसे उन्नत भारत अपना,कुछ ऐसा हम कर जायें,
देश का हो फ़िर मस्तक ऊँचा,आसमान पर ऐसा छायें।

-आजाद देश है,आजाद हैं हम,आज़ादी का गीत हम गायें,
आओ इस स्वतंत्र दिवस पर हमसब भारत का जयघोष लगायें।

Saturday, August 9, 2008

समाज का प्रतिबिम्ब

१-खेल मे डूबा मासूम

२-लखनऊ में मीडिया के महिला सशक्तिकरण मे योगदान पर सेमिनार मे विचारमग्न लोग

ज़हर उगलते कारखाने

जरा सा चूम लूँ मैं

कपोत प्रणय क्रीडा

सड़क के बीच पार्किंग

गन्दगी मे बचपन

कूड़ा उठाते कम उमर के बच्चे राजाजीपुरम लखनऊ मे

Sunday, August 3, 2008

रास्तों पर नज़र रखना

रास्तों पर नज़र रखना
मंजिलें तो हर मोड़ पर मिलेंगी
संभल के रहना दोस्तों से
दुश्मनों से तो फिर भी धमकियाँ मिलेंगी
बात दिल की दिल ही में रखना
सच कहोगे तो गालियाँ मिलेंगी
कभी अपने अन्दर भी झाँक लेना
दूसरों में तो हमेशा कमियाँ मिलेंगी
मत गुज़रना तुम राहे इश्क से
यहाँ सिर्फ़ वीरान गलियाँ मिलेंगी
वक़्त का खयाल रखना
समय देखने के लिए तो घडियाँ मिलेंगी
हाथ मिलाने के लिए तो एक लम्हा ही काफ़ी है
दिल मिलाने में मगर सदियाँ लगेंगी
तुम गैरों से मेल-जोल बढ़ाते रहना
अपनों से रंजिशें मिटाने में कई जिंदगियाँ लगेंगी

Tuesday, July 29, 2008

अल्फाज़ बहुत हैं

अल्फाज़ बहुत हैं
सुनने वाला कोई नहीं
ज़ज्बात बहुत हैं समझने वाला कोई नहीं
क्या कहें किससे कहें सुनने वाला कोई नहीं
खामोश मेरी हर तन्हाई है
जाने क्यों कई रोज़ से तेरी याद नहीं आई है
एक अज़ीब सी रग्बत है दिल में आजकल
लगता है तुझे भी कई दिनों से मेरी याद आई नहीं है
तारीखें बदलती जा रही हैं
वक्त पर कुछ थम सा गया है
तू गया था जब छोड़ मुझको
वो मंज़र जेहन में कुछ जम सा गया है
लगता है फ़िर सज़ा ली हैं तूने महफिलें
मेरे घर में आज कुछ मातम सा रहा है
लगता है तुझे ये भी याद नहीं कि
कोई कभी तेरा हमदम भी रहा है

Sunday, July 27, 2008

कब बदलेगी ये फ़िज़ा

सोचता हूँ कब बदलेगी ये फ़िज़ा
और कब थमेगा
आतंक और दहशत का ये सिलसिला
क्यों है उजड़ी बस्तियाँ और
क्यों हैं वीरां गुलिस्तां
क्यों है भीगी हर माँ की आँखें
क्यों है बिलखती बहुएँ-बेटियाँ
है हर तरफ फैली एक अजब सी खामोशी
हर चेहरे पर है एक अजब सी उदासी
हर आँख में पानी है उमड़ा
फिर भी है हर नज़र प्यासी
हो रही रुसवा इंसानियत हर ओर
हैवानियत है मुस्कराती
ढूँढने पर भी नहीं मिलता
जिन्दगी का नामोनिशाँ
मौत हर जगह आसानी से मिल जाती
कोई जा के कह दे उस ऊपर वाले से कि
तेरे इस जहाँ में अब
कहीं भी तेरी सूरत नज़र नहीं आती
क्या तुझे अपने बन्दों की ये हालत नज़र नहीं आती

Thursday, July 24, 2008

मिलना मत कभी अपने आप से;
घबरा जाओगे
ढूँढने पर भी ख़ुद को
अपने आप में नहीं पाओगे
चेहरा जो तुम दुनिया को दिखाते हो
एक छलावा है
सबको तो तुम बरगला सकते हो
पर कभी ये सोचा है कि
ख़ुद से कैसे झूठ बोल पाओगे
झाँकना मत कभी तुम अपने गिरेबां में
वरना अपने आप से खुद शर्मा जाओगे
जो कहते रहे हो तुम सबसे आज तक
वही बातें ख़ुद से कहोगे तो
अपनी असलियत से वाकिफ हो जाओगे
जब कभी फ़िर मेरे बारे में सोचोगे
तो मैं तुम्हारी हर बात में -
तुम्हारे हर ख़यालात में
आज भी रहता हूँ जान जाओगे

Monday, July 21, 2008

इक खामोश समंदर देखा है

इस शोर-शराबे भरे शहर में
मैंने इक खामोश समंदर देखा है
जहाँ इंसान को इंसान की परवाह नहीं
ऐसा इक मंजर देखा है
मिलती नहीं है जिन्दगी जहाँ पर
इंसानों की उस बस्ती के अन्दर देखा है
जहाँ नहीं सुनी जाती कोई फ़रियाद
ऐसा इक मन्दिर देखा है
हर रोज़ बनते-बिगड़ते रिश्तों का
इक अजब बवंडर देखा है
अब तो याद भी नहीं क्या-क्या देखा था
पर इतना जानता हूँ
मैंने हर मोड़ पर दम तोड़ता हुआ
एक कलंदर देखा है

Sunday, July 20, 2008

तेरे सिवा कुछ रहा ही नहीं

मुद्दतें बीत गयीं तुझसे मिले हुए
और तू कभी दूर मुझसे गया भी नहीं
दूरियां बढ़ जायें अपने बीच इतनी
ऐसा तो दरमयां अपने
कुछ कभी हुआ ही नहीं
तेरे गम से भर गया है जी मेरा
फ़िर ये कैसे कह दूँ
तेरी जुदाई से हासिल मुझे कुछ हुआ नहीं
जाने कब ये ख्वाहिशों के महल यूँ ही बन गए
तुमने तो कभी पत्थर एक भी रखा नहीं
मैंने जाने क्या-क्या सुन लिया
तुमने तो शायद कभी कुछ कहा ही नहीं
भूल कैसे सकता है भला तू मुझको
जब मैं तेरी यादों में कभी रहा ही नहीं
क्या तुझे भी कभी याद आते हैं वो पल
जब चैन तुझे बिन मेरे एक लम्हा भी रहा नहीं
मैं तो तलबगार तेरा आज भी हूँ
पर सच कहना कि
क्या तू तलबगार कभी मेरा रहा ही नहीं
जाने क्यों चाँद कुछ मुरझा सा गया है
कहीं तूने मेरी तरह उससे भी कुछ कहा तो नहीं
कभी गौर से आइना देखोगी तो पाओगी
कि मेरे जाने के बाद
नूर तेरे चेहरे में भी अब पहले जैसा रहा नहीं
वक्त थोड़ा और गुज़रने दो
जान जाओगी कि प्यार मेरे जितना
कभी किसी ने तुम्हें किया ही नहीं
पैगाम तो भेजा था तुझे मैंने इन घटाओं के हाथ
पर सुना है की इस बार तेरे शहर में
मौसम का हाल कुछ अच्छा रहा नहीं
और अब कुछ कहना नहीं चाहता हूँ
बस इतना जान ले
कि तेरे जाने के बाद
मेरी जिन्दगी में
एक तेरे सिवा कुछ रहा ही नहीं

Thursday, July 17, 2008

कौन है वो

कौन है वो
जो जिन्दगी के साथ निभा के भी खुश है
कौन है वो
जो अपनों को आज़मा के भी खुश है
कौन है वो
जो अपने आप से नज़रे मिला के भी खुश है
कौन है वो
जो हर गम भुला के भी खुश है
कौन है वो
जो बीती बातों को भुला के भी खुश है
कौन है वो
जो ज़माने को अपना बना के भी खुश है
कौन है वो
जो रिश्ते बना के भी खुश है
कौन है वो
जो हर मंजिल को पा के भी खुश है
सच तो यह है कि
हैं नहीं जहाँ में कोई भी ऐसा
जो हर खुशी पा के भी खुश है

Tuesday, July 15, 2008

मुस्कराने की कोशिश कर रहा हूँ

अब मैं बहुत थक गया हूँ
हालाँकि चला नहीं हूँ बहुत मगर
फ़िर भी जाने क्यों इस मोड़ पर ठिठक गया हूँ
याद कुछ मैं करने की कोशिश कर रहा हूँ
बीती हुई कल की यादों से
आज के खालीपन को भरने की कोशिश कर रहा हूँ
शब्द जो मुरझा गए हैं
उनमे फ़िर से रंग भरने की कोशिश कर रहा हूँ
जिस आग के शोले ठंडे पड़ गए थे
वही आग फ़िर से जलाने की की कोशिश कर रहा हूँ
लड़ना तो नहीं चाहता हूँ मगर
लड़ना पड़ रहा है
क्योंकि सदियों से सोए हुए इंसानों को
जगाने की कोशिश कर रहा हूँ
नहीं बदल सकता दुनिया को न सही
खुद को तो बदल सकता हूँ
न चले कोई मेरे साथ न सही
मैं अकेला ही नए रास्ते बनाने कि कोशिश कर रहा हूँ
फ़िर से नए ख्वाब सज़ाने की कोशिश कर रहा हूँ
अब मैं फ़िर से मुस्कराने की कोशिश कर रहा हूँ





Saturday, July 12, 2008

धुंधलका बढ़ता जा रहा है

शाम झरोखे पे बैठा घर लौटते परिंदों को देख रहा था
कुछ पुराने आशियाने याद आ गए
वो गली का मोड़ ,नीम का पेड़
चाय की दुकान, खेल का मैदान
और कुछ साथी पुराने याद आ गए
जब हर सुबह हसीन
हर शाम रंगीन थी
न फिक्रे दुनिया थी
न गमे यार था
हर मौसम मौसमे-बहार था
जब हर कोई अपना था
सच लगता हर सपना था
फ़िर आज वो ज़माने याद आ गए
गुज़रती थी हर शाम यारों के साथ
कभी गली के नुक्कड़ पे
तो कभी चाय की दुकान पे
वो कॉलेज के गलियारे
जहाँ मिलते थे यार प्यारे
और बुनते थे सपने ढेर सारे
जहाँ सजाते थे हम खाबों की महफिलें
फिर वो ठिकाने याद आ गए
अब धुंधलका सा छा रहा है
जाने फिर क्या याद रहा है
गुज़र चुका है जो ज़माना
फिर से जेहन पे छा रहा है
धुंधलका बढ़ता जा रहा है
धुंधलका बढ़ता जा रहा है.....




Tuesday, July 8, 2008

हमसफ़र

हमसफ़र जो खो जाते हैं
सिर्फ़ वो ही क्यों याद आते हैं
वो ख्वाब जो बिखर जाते हैं
वो ही क्यों हर पल तड़पाते हैं
लम्हें जिन्हें हम भूलना चाहते हैं
वो क्यों हमारे हर पल में बस जाते हैं
जिन राहों को हम जाने कब छोड़ आए थे
क्यों वो रास्ते हमें बार-बार बुलाते हैं
जिन तस्वीरों को मैं जाने कब जेहन से मिटा चुका हूँ
उनके साए क्यों मुझे हर वक्त डराते हैं
जाने किसको को ढूँढतीं रहती हैं आँखें
जो चेहरे पास हैं वो नज़र क्यों नहीं आते हैं
मुलाकात तो करता हूँ मैं हर किसी से मगर
जाने क्यों लोग मुझे पसंद नहीं आते हैं
जिंदगी कुछ समझाने की कोशिश तो कर रही है मगर-
जाने क्यों इसके फलसफे मुझे समझ नहीं आते हैं

Wednesday, July 2, 2008

अंजान सफर

मैं कहाँ इन रास्तों को जानता था
कब मैं इनको अपना मानता था
फ़िर भी जाने किसके इशारे पर चल रहा हूँ
जाने क्यों अपने मन को कुचल रहा हूँ
जानता हूँ मिलेंगी मंजिलें भी और
हाँसिल होंगे मकाम भी
पर कब मैं ये सब चाहता था
है नहीं चाहत मुझे उस जहाँ की
जहाँ इंसान को है फ़िक्र नहीं इंसान की
जहाँ हर चेहरे पे मुस्कान तो है पर नाम की
जहाँ हर कोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है
कामयाबी के सफर में दोस्ती और रिश्तों को कुचलने को
जिंदगी का फलसफा मानता है
जहाँ आंखों में प्यार नहीं सिर्फ़ सपने हैं
जहाँ हर लम्हा एक नई जंग है
जहाँ दिल बनारस की गलियों से भी ज्यादा तंग हैं
जहाँ जिंदगी ख्वाहिशों के जंगल में कैद है
जहाँ हर मोड़ पे ग़मों की एक नई पौध है
जहाँ हर खुशी नीलाम होती है
ढूंढते-ढूंढते थक गया हूँ
पर मिलती नहीं कोई ऐसी डगर
जहाँ इंसानियत नहीं गुमनाम होती है





Monday, June 30, 2008

मंत्री जी का चुनाव

लो फ़िर आ गईं चुनावी बहारें,
सजने लगीं झंडियाँ, बंटने लगे पर्चे
हर तरफ़,हर गली में हैं सियासत के चर्चे
ऐसे मे गाँव में मंत्री जी आए,
संग में अपने हैं पोटली लाये
पोटली में हैं वादे भरे,जो चुनाव बाद लगते मसखरे
नेता जी ने इलाके में जुलूस बुलाया
बड़े से मंच पर आसन जमाया
फ़िर बोले,
बोले तो फ़िर बोलते गए
वे बोले,"मेरा वादा है की इस इलाके के लिए सड़क बनवाऊंगा"
तभी भीड़ से एक आदमी खड़ा हुआ
और बोला,
"और उसमे का दो तिहाई पैसा ख़ुद खा जाऊंगा"
मंत्री जी बोले,
"यहाँ एक अस्पताल बनेगा"
दूसरा बोला,
"जिसका निर्माण कार्य उद्घाटन से आगे नहीं बढेगा"
मंत्री जी बोले,
"गाँव तक बिजली का कनेक्शन आ जाएगा"
तीसरा बोला,
"और बिना बिज़ली आए जो बिल आयेगा,वो भरने क्या तू आएगा"
आख़िर मंत्री जी का धर्य दे गया जवाब
उनका विकासवादी चुनावी अभियान हो गया ख़राब
अब उन्होंने पैंतरा बदल डाला,
ख़ुद को फ़िर से पुराने रंग में रंग डाला
बोले,
"मेरी जाती के लोगों,धर्म के साझेदारों
चिंता न करो , सब को आराक्चन दिलवाऊंगा
और तुम्हारे देवता के नाम का मन्दिर भी बनवाऊंगा
अबकी जनता कुछ न बोली
सुनती रही न जी की ठिठोली
आख़िर नेता जी अपना रंग जमा गए
जनता ताली बजती रही
और वे उसे अंगूठा दिखा गए
चुनाव के बाद मंत्री जी विजयी हो गए थे
क्योंकि,
वे जनता में साम्प्रदायिकता के बीज
पहले से ही बो गए थे।

द्वारा:कौशलेन्द्र

Wednesday, June 25, 2008

गोमती सफाई अभियान

पिछले कुछ दिनों से गोमती की सफाई के लिए किए गए सरकारी, गैर सरकारी ,व व्यक्तिगत स्तर पे किए गए प्रयास निश्चय ही सराहने योग्य हैं। जरा देखिये मात्र थोड़े प्रयास से ही गोमती का रूप कितना बदल गया है.अगर इसी तरह हम सभी अपनी जिम्मेदारियों को समझ सकें और किंचित मात्र भी योगदान दे सकें तो निश्चय ही हम अपनी गोमती को अपने शहर को खूबसूरत बना सकते हैं.कुछ नहीं तो इतना ही कर लें की अपनी तरफ़ से कोई गन्दगी उसमे न जाने पाए.अगर इस शहर का हर आदमी इतना सा ही कर सका तो गोमती ही क्या पूरा शहर ही खूबसूरत दिखने लगेगा। और हाँ इस गोमती अभियान ने साबित किया है की हमारे अख़बार सामाजिक परिवर्तन की नै इबारत लिखने मे क्या भूमिका निभा सकते हैं।आशा करता हूँ की हमारे पत्रों द्वारा इस तरह के मुद्दे आगे भी सामने लाये जायेंगे और जनता भी अपनी भूमिका इसी तरह निभाएगी। सरकार की तरफ़ से भी इस दिशा मे उठाया गया कदम प्रशंसनीय है।
यकीं मानिये गर हम इस तरह साथ मे मिल कर काम करें तो अपनी धरा को आगे आने वाले कई संकतो से बचा सकते हैं।

द्वारा:कौशलेन्द्र

सुबह का अखबार

सुबह सुबह जब आँख खुली तो
सामने पड़ा अखबार मिला,
खोला उसको हर पन्ने पर, क्रंदन हाहाकार मिला
कहीं पे दुश्मन ने मारा था,कहीं दोस्त मक्कार मिला
कहीं खेत खलिहान जले थे,कृषक सदा बेहाल मिला
हर तरफ़ थे भूखे नंगे, पर देश तो मालामाल मिला
देश के रक्षा सौदे मे,नेता है गद्दार मिला
विकाश की योजनाओ मे, अधिकारीयों का भ्रष्टाचार मिला
कहीं पे भाषाई दंगे थे, कहीं फैला छेत्रवाद मिला
देश के अन्दर अंगडाई लेता,मुझको एक अलगाव मिला
कल तक था डाकू कहलाता,वो आज बना सरकार मिला
जो ख़ुद ही अनपढ़ था, उसे शिक्षासुधर का भारमिला
कहीं दूर एक कोने मे मानवता का यार मिला
सुबह की एक कप के साथ मे, मुझे जगत का सार मिला

द्वारा:कौशलेन्द्र

Sunday, June 22, 2008

कुछ हसरतें

साथ तो चले थे मगर जाने कब जाने कब तुम दामन छुडा बैठे
गिला गर था कोई तो हमसे कहा होता
यूँ गैरों से शिकवा तो न किया होता
रंजिशें कुछ तो और बढ़ाई होती
अधूरे इश्क की तरह अधूरी दुश्मनी तो निभाई होती
ना था इश्क मुझसे न सही औरों से दोस्ती तो न बढ़ाई होती
तेरे ही ख्वाबों में रात गुजरती है तेरे ही अरमान से सेहर होती है
कम से कम अपनी चाहत तो मेरे दिल से मिटाई होती
मैंने कई अरमां सजा रखे थे अपनी पलकों पे
जाने से पहले इन्हें आग तो लगाई होती
रास्ते अलग करने से पहले
मुझे मेरी मंजिल तो बताई होती
तेरे ही अरमानों से सजा रखे थे मैंने अपने दरों-दीवार
जाने से पहले इस समशान में इनकी लाश तो दफनाई होती
शिकवे करने के लिए गैरों के पास जाने की जरूरत क्या थी
कभी अपनों के सामने तो बात उठाई होती
दर्द तेरे बख्शे हुए ज़ख्मों का नहीं
तकलीफ तो तेरी दी हुई खुशियाँ देती हैं
तेरे साथ गुज़ारा हर लम्हा याद है मुझे
जाने से पहले मेरे जेहन में बसी अपनी चाहत की इबारत तो मिटाई होती
मुझे बर्बाद ही करना था तो मुझसे सिर्फ एक बार कहा होता
यूँ जहाँ में तेरी रुसवाई तो न होती
मालूम है मुझे कुछ मजबूरियाँ रही होगीं तेरी
पर मुझसे अपनी हालत तो न छुपाई होती
मैं तेरा प्यार नहीं न सही;तलबगार तो हूँ
अपने आशिक की ये हालत तो न बनाई होती

Saturday, June 21, 2008

यह है मुंबई मेरी जान

भागते-दौड़ते लोग, रुकी-रुकी सी जिन्दगी
हर तरफ़ बेशुमार भीड़, तनहा-तनहा आदमी
हर तरफ़ शोर ही शोर, फ़िर भी खामोश हर जुबान
हर तरफ़ इंसान ही इंसान, इंसानियत गुमनाम
हर किसी को मंजिल की तालाश, हर कोई रास्तो से अनजान
हर तरफ़ जगमगाती रौशनी, हर दिल में अँधेरा
हर तरफ़ खुशियों की दुकान, हर तरफ़ गमगीन इंसान
आसमान छूती इमारतें, जमीन में धंसता जाता इंसान
हर किसी की है पहचान, हर कोई एक दूसरे से अंजान
यह है मुंबई मेरी जान

Tuesday, June 17, 2008

ज़रा सोचिये

गत कुछ दिनों से समाचार पत्रों में उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों मे धरती के फटने की खबरें आ रही हैं। शायद हम सबने इतने दिनों तक इस वसुंधरा के अस्तित्व से जो खिलवाड़ किए हैं उसका प्रभाव आना दिखने लगा है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है की अभी तक न तो प्रशासन ने इस तरफ़ समुचित ध्यान दिया है और न ही आमजन।
मानसून की जल्दी आवक की खुशी मे सभी इतना मगन हैं की उन्हें इस अति चिंतनीय बात पर विचार करने का समय ही नहीं है। अब तक हम अपने पर्यावरण के साथ जो खिलवाड़ करते आए है उसके जो प्रभाव अब तक दिखे यह उन सबसे कहीं बढ़कर है। क्योंकि अगर इसी तरह मौसम मे बदलाव होता रहा और धरती पर इसी तरह के प्रभाव पड़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब पूरा विश्व बुंदेलखंड मे तब्दील हो जाएगा

Monday, June 9, 2008

एक सुबह

एक बार फ़िर सुबह हो चुकी है
फ़िर सब के जगने का वक़्त आ गया है,
हर सुबह के sath घर मे एक नया अख़बार आता है,देश दुनिया के बरे मे सबको जगाने सब को बताने की क्या कुछ हो रहा है हमारे इस जहाँ मे'
पर हम ने न जगने की कसम खा रखी है,
हम सिर्फ़ अख़बार पढ़ के एक किनारे रख देते हैं ,और फ़िर उसमे लिखिघटनाओ को भूल जाते हैं,फ़िर ने सुबह नया अख़बार नई खबरें,लेकिन हम उन ख़बरों पर कितना विचार करते हैं,क्या हम उन घटनाओं से अपने समाज का कोई रूप जानने की कोसिस करते हैं,क्या हम जानने का प्रयत्न करते हैं की घटनाओं के दूरगामी परिदम क्या होंगे ,






Tuesday, May 27, 2008

गुर्ज़र आन्दोलन

कल मैं समाचार पत्र पढने के बाद जब खाली बैठा तो अचानक मेरे मन मे एक विचार आया ।
अगर गुर्ज़रों की ही तरह इस देश मे कुछ और समुदाय भी इसी तरह मांग करने लगें तो ......
उसके बाद कुछ और, फ़िर कुछ और...
क्या होगा आख़िर तब
आज गुर्ज़रों की मांग के रूप मे हमारे सामने आराक्चन का एक भयावह पछ सामने आया है
गुर्ज़रों की मांग और उनके आन्दोलन से उत्पन्न हिंसा हमें दिखाती है की मंडल के दौर के साथ हमारे सामने जो लोलीपॉपरखा गया था वो वास्तव मे एक मीठे जहर का बना हुआ था।जिससे हम चाह के भी छुटकारा नहीं पा सकेंगे और धीरे धीरे हमारा समाज पंगु होता जाएगा, इस आशा के कारण की arachan की लाठी का सहारा पाकर हम भी आगे जायेंगे


ज़रा सोचो क्या बैशाखी के सहारे कोई

Tuesday, May 20, 2008

लड़की

एक लड़की,खोल खिड़की

गै थी भाग,खेलने के लिए

पर

वह नन्हा ह्रदय

डर रहा था,

अपनी माँ के खौफ से।

फ़िर भी-

उसकी अंतरात्मा उसको उत्साहित कर रही थी

एक अंजना अवलंबन पाकर,

जुट गै वह खेकने मे।

चौंक पड़ी वह अपना नाम सुनकर अचानक

शायद

किसी ने पुकार दी थी?

हाँ,

यह उसकी माँ के क्रोध का प्रभंजन था

वास्तव मे,

उश्की माँ ने पुकार दी थी उसे

कांपता ह्रदय

खड़ा हो गया माँ के सामने,

माँ की क्रोध्पूरित नेत्रों की शिकार

देख रही थी पिता को वह

अचानक.....

पिता रूद्र मे बदला

एक... दो...

कई चीखें रोक रही थीं छड़ी को

मगर.....

फ़िर भी ख़त्म नाही हुआ यह कहर

अंत मे...

माँ के इशारों पर

काम करती रही वह

जुट गै थी माँ की तयारियों मे

क्योंकि

उदघाटन करना था इन्हें

किसी बालिका विद्यालय का

एक कप चाय पहुँचनी थी पिता को

क्योंकि

बल मनोविज्ञान पर लेक्चर देने के लिए वह

स्क्रिप्ट तैयार कर रहे थे ।

अंत में...

माँ जा चुकी थी,

पिता लिख रहे थे ,

और वह बढ़ रही थी.......

जूठे बर्तनों की तरफ़।

द्वारा:

Wednesday, May 14, 2008

एक सीख

सफर को जब किसी दास्ताँ मे रखना
कदम यकीन मे मंजिल गुमांन मे रखना
जो साथ है वाही घर का नसीब है पर
जो खो गया है उसे भी मकान मे रखना

चमकते चाँद सितारों का क्या भरोसा है
ज़मीन की धूल भी अपनी उडान मे रखना
सवाल बिना मेहनत के हल नाही होते
नसीब को भी मगर इम्तहान मे रखना।

philosophy of life

This i have seen in life,
he who is over cautious about himself
falls into
dangers at every step,
he who afraid of losing
honour & respect
gets only disgrace,
he who is always
afraid of loss always loses.

by:swami vivekanand

सैनिक व नेता

वह सैनिक है,
यह नेता है,
वह देश को सब कुछ देता है,
यह देश का सब ले लेता है,
वह पेट खलाये लड़ता है,
यह पेट फुलाए बैठा है,
वह भी रक्त बहाता है,
यह भी रक्त बहाता है,
फर्क?
फर्क सिर्फ़ इतना है
वह रिपु का रक्त बहाता है,
यह अपनों को ही लड़वाता है।
वह त्याग बलिदान का दीवाना,
यह वोट दान का परवाना.
वह स्वतंत्रता का पुजारी है,
पर यह सत्ताधारी है।
फ़िर
अंत समय जब आता है,
वह भी मर जाता है,
यह भी मर जाता है,
फर्क?
फर्क सिर्फ़ इतना है,
वह शत्रु की गोली खाता है,
पर यह चारा ही खा जाता है,
वह मर कर इतिहास बनाता है,
यह कांड व घोटाले छोड़ जाता है।
वह अमर शहीद कहलाता है,
यह सी बी आई जांच मे फंस जाता है।
वह मातृभूमि की मिटटी मे मिल जाता है,
यह पक्की कब्र बनवाता है।





द्वारा:कौशलेन्द्र

Wednesday, April 2, 2008

बम क्या है?

१८७७ में प्रकाशित पहला राजनैतिक पत्र ''हिन्दी प्रदीप'' बंग-भंग आन्दोलन के समय में यह कविता छपने के कारण १९१५ में बंद हो गया।
कुछ डरो, न इसमे केवल इसमे बुद्धि भरम है,
सोचो यह क्या है जो कहलाता बम है।
यह नही स्वदेशी आन्दोलन का फल है,
नही बायकाट अथवा स्वराज्य को कल है।
जब-जब नृप अत्याचार करा करते,
और प्रजा दुखी चिल्लाते ही रहते हैं,
नही दीनों की जब कहीं सुनाई होती,
तब इतिहासों की बात सत्य ही होती।
माधव कहता यह किसका बुरा करम है,
सोचो यह क्या है जो कहलाता बम है।

Monday, March 31, 2008

एक सच्चा अनुभव

पिछले दिनों जब विभाग मे कुल संदेश को हमारे शिक्षकों द्वारा संवारा जा रहा था , कुछ सिखने के लिए मैं और हर्ष देर तक विभाग मे रुकने लगे, उन दो - तीन दिनों मे मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। सबसे मजेदार बात सीखने को मिली की किस तरह से आप बड़े ही संयम से गलतियाँ खोज कर उन्हें सुधारते जाते हैं। जिस काम को मैं अब तक इतना आसान समझ रहा था अब पता चला की वो निहायत ही धीरज और सब्रका काम है। मैंने सीखा किस तरह घंटों बैठना पड़ता है एक एक पेज को छापने लायक बनने के लिए । अब मैं जान चुका हूँ की कितनी मेहनत करके निकलता है कुल संदेश।

Wednesday, March 19, 2008

जीजस

जीजस!

हर युग मे तुम्हें सलीब ही दी जायेगी,

क्योंकि दुनिया को तुम सलीब पर टंगे ही

अच्छे लगते हो

इसके बाद

न्याय का नाटक खेला जाएगा

कथित प्रायश्चित के आंसू तपकेंगे

और

सब कुछ शांत हो जाएगा

तालाब मे फेंके गए कंकड़ की तरह,

थोडी हलचल, फ़िर सब कुछ निश्छल

तुम्हारा संदेश ले जाने वालों के साथ भी

यही किया जाएगा, क्योंकि उन्हें

विरासत मे मिली है ,तुम्हारी पीड़ा

क्या इसीलिए दी थी अपनी जान तुमने ?

धर्म की आड़ मे लपलपाती जीभ लिए

घूम रहे हैं रोज़ गीदड़ ...

घोंट देंगे गला तुम्हारे त्याग का

कानो के परदे फाड़ फाड़ कर चीखेंगे चिल्लायेंगे

धर्म ध्वजा लहराएंगे

और

gaar denge उसे तुम्हारी कब्र पर !

तुम्हारे अगले आगमन की प्रतीछा मी

सलीबें तैयार की जाएँगी

मानवता रोएगी, कराहेगी ,

लेकिन तुम रुकोगे कब,

तुम too आते ही रहोगे
her युग मी

शान्ति का सदेश लेकर।

द्वारा:बी. पांडेय

एक आरजू

"भगवान् करे ,
फूलों की खुशबुओं से भरी ,
तुम्हारी राहें हों ,
तुम्हे उमग कर अपने अन्दर
समेट लेने को,
अपनों की बाहें हों,
पर,
वहां जाकर भी नहीं भूलना,
उन बाँहों को,
जो तुम्हारे लिए,
अनायास उठ गई थीं,
भूलना नहीं उन आंखों को
जो अचानक ही
तुम्हारे जाने की बात सुनकर,
छलक आयीं थीं,
हाँ,
वहां जाकर
ये बात ज़रूर कहना
हमने कहा है,
सियासी नक्शों से।
ज़मीनें बंटती हैं,
दिल नहीं. "

द्वारा:...............

Friday, March 14, 2008

तुम

तुम शायद नही जानती ,
तुम्हारे 'तुम' होने से मुझे क्या फर्क पड़ता है ,
पर तुम्हारा तुम होना ही मुझे देता है एक संबल ,
एक आशा,एक अनुभूति ,
जिसके सहारे मैं निकल पड़ता हूँ,
इस जहाँ में , एक मंजिल की खोज मे,
निर्भय,निडर,निश्चिंत होकर
क्योंकि,
जब भी मेरे सामने मुसीबतों के पहाड़ आते हैं,
यूं लगता है तुम यहीं कहीं हो,
मेरे आस पास ,
देख रही हो मेरे कामों को,
और
मेरे कुछ भी ग़लत करने पर
आकर टोकोगी मुझे,
वैसे ही जैसे बचपन मी टोका करती थी,
मरोड़ देती थी तुम मेरे कानो को,
main रोता रहता था,
पर आज में जान गया हूँ ,
तुम जो कुछ भी करती हो ,
मेरे भले के लिए ही होता है,
आख़िर
ऐसा क्यों न हो ,
आख़िर
तुम हो मेरी
मेरी 'माँ'

by:kaushalendra