Sunday, October 19, 2008

वक्त और दोस्त

वक्त ने हमको आस्तीन के सांप दिखाए हैं,
दूसरों पे भरोसे मे हमने अपने हाथ जलाये हैं,
हम बैठ कर इंतज़ार करते रहे दुश्मनों का,
पर अब मेरी हस्ती मिटाने दोस्त ही आए हैं।

खतरनाक मानसिकता

इंडिया टूडे का १५ अक्टूबर का अंक पढ़ा। इसमे दिल्ली में विस्फोट के आरोपी तीनो अभियुक्तों जिया-उर-रहमान,शकील,साकिबनिसार की बात पढ़ी। उस बातचीत को पढने के बाद मैं सिहरउठा। इस बातचीत मेंजो एक बात साफ़ नज़र आती है वह ये किइन तीनो ने धमाकों में अपना हाथ मान लिया है। और यह भी कि उन्हें इसका कोई पछतावा भी नहीं है।
अब सवाल यह है कि अगर ये तीनो अपना जुर्म मान रहे हैं और उस पर किसी भी तरह की शर्मिंदगी नहीं महसूस कर रहे हैं तो फ़िर इनके पैरोकार राजनेता बिनाह पर यह महसूस कर रहे हैं की देस में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर उन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है। इन लोगों ने मुठभेड़ में मारे गए आतिफ के इन विस्फोटों में शामिल होने की बात भी मानी है। इस मुठभेड़ को फर्जी मानने वाले मानवाधिकारीयों व राजनेताओ से मैं अपील करूंगा की मात्र एक समुदाय के होने के कारणअगर इन लोगों को दोषी नही माना जा सकता तो सिर्फ़ उस समुदाय विशेष के होने से ये निर्दोष भी नहीं हो जाते।राजनेताओं को अपनी वोट की राजनीति से उठ कर देश के बारे में भी सोचना चाहिए।मानवाधिकार संगठनों को धमाकों में मारे गए लोगों जिसमे शायद मुस्लिम भी थे और आम जन का जो इन घटनाओं से दहल गए है का भी ख़याल करना चाहिए।
ज़रा रहमान के उन शब्दों पर गौर करें जिसमे उसने माना है की वह उस बाज़ार में भी dhamaake कर सकता है jahan उसकी माँ के होने की sambhavna है। इससे उसके dimaag मे बसे खतरनाक मनसूबे पता चलते हैं। इस से पता चलता है की ऐसे लोग किसी भी मज़हब के हों दुश्मन ये इंसानियत के हैं। उस इंसानियत के जिसकी बेहतरी के लिए मानवाधिकारी मरे जा रहे हैं।ऐसे लोगों की वकालत करके हम मात्र इंसानियत का नुकसान करते हैं। इस तरह के लोगों की सिर्फ़ निंदा की जा सकती है और कुछ नहीं।
फ़िर भी अगर आपको कुछ ग़लत लगता है तो इंतज़ार करिए मानवाधिकारी जाँच कर रहे हैं इतना हो हल्ला मचाने से सिर्फ़ और सिर्फ़ समाज मे विघटन पैदा होता है और कुछ नहीं। आम जनता को इस तरह के वक्तव्यों जिनमे मज़हबी आधार पर अपील की जाए से बचने की ज़रूरत है।
वरना याद रखिये अगर इस मानसिकता के लोग खुले घुमते रहे तो अगला धमाका आपके पास भी हो सकता है। उन धमाकों मे किसी भी मज़हब का कोई भी हो सकता है, हाँ भाई नेता जी भी और मानवाधिकारी भी या फ़िर उनका कोई सगा सम्बन्धी।

तो आइये हम सब आतंक का विरोध करें एक साथ,
हिंदू हो या हो मुस्लिम उठे अब सबका हाथ,
पस्त कर दो अब ऐसे मंसूबों को,
जो अंजाम देते हैं ऐसे विस्फोटों को।


Friday, October 10, 2008

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हर मोड़ पे प्रश्नचिन्ह लगाती रही,
राहों में हैं दुश्वारियां पल पल ये बताती रही,
जिस भी राह पर हम चले सुलझाने को ज़िन्दगी,
हर वो राह एक उलझन बढाती गई।