Thursday, December 31, 2009


वर्ष २००९ के अंतिम पहर मे कुछ लिखने के लिए मन मचल रहा है. इसलिए कड़कती ठंढ मे भी मैं कीबोर्ड पर अपनी उंगलियाँ चला रहा हूँ. अभी कुछ ही देर पहले मैं अपने कमरे पर लौटा हूँ. बहार कड़कती ठंढ पद रही है. गाड़ी चलते वक्त सामने कुछ सूझ नहीं रहा था. फिर भी लोग नए साल के आगमन कि खुशियाँ मन रहे थे.वैसे मैं आने वाले नए साल के बारे मे तो नहीं जनता पर ०९ का अंतिम दिन मेरे लिए ख़राब ही गुज़रा अंतिम कुछ घंटो मे मैंने वर्ष का अपने साथ हुई अंतिम दुर्घटना भी झेली पर फिर भी मुझे ख़ुशी है कि सब कुछ सामान्य रहा.वर्ष भर का अनुभव कहाँ तक याद किया जाये पर कहते हैं न अंत भला तो सब भला. मैं भी इश्वर का शुक्रगुजार हूँ कि तमाम सारी मुश्किलों के बाद भी मैं सलामत हूँ और ज़िन्दगी कि लड़ाई लड़ने मे समर्थ हूँ. मेरे लिए यह इश्वर का सबसे बड़ा आशीर्वाद है कि उसने मुझे जीवन मे अपनी लड़ाई लड़ने मे सक्चम बनाया है. हर बार जब मेरे साथ कुछ गलत होता है भगवान् को कोसता हूँ फिर सोचता हूँ कि आखिर इससे भी ज्यादा गलत हो सकता था वह क्यों नहीं हुआ और मुझे सुकून मिलता है. नव वर्ष का आगमन हो चूका है. सब एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे हैं. पर मैंने अभी तक किसी को भी बधाई सन्देश नहीं भेजा है. मैं समझ नहीं पता हूँ कि सारी दुनिया क्यों एक ही दिन सब खुशियाँ मन लेना चाहती है. क्या ऐसा हो सकता है कि हम हर दिन थोड़ी थोड़ी करके खुशियाँ मनाएं. खैर चोदिये कहाँ से सुरु हुआ मेरी बैटन का सफ़र कहाँ तक पहुँच गया. अब मुझे भी ब्लॉग के सभी पाठकों को नववर्ष कि शुभकामनायें देनी हैं. वो दुनिया कि रीत पर कुछ तो करना ही पड़ता है. किसी गाने कि लाइने याद आ गई- दुनिया मे गर आये हो तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा.
खैर आप सब को नववर्ष मुबारक हो

आप सब सोच रहे होंगे कि एक बधाई सन्देश के लिए इतना लिखने कि क्या ज़रुरत थी. दोस्तों हर साल इसी तरह सुरु होता है ज़िन्दगी कटती जाती है. हम उसी रस्ते चलते जाते हैं. साल ले अंत तक पता ही नहीं चलता कि ज़िन्दगी कि कहानी कहाँ से शुरू होकर साल के अंत मे किस मोड़ पर पहुँच गई. जैसा उपर मैंने कुछ भी लिखना शुरू किया और एंव वर्ष कि बढ़ी तक पहुँच. उसी तरह इस साल भी जहाँ हैं वहीँ से शुरू हो जाइये अंत तक बढियां और शुभकामनाओं तक पहुन्व्ह ही जायेंगे.
शुभ रात्रि

Wednesday, December 30, 2009

Tuesday, December 29, 2009

Friday, December 11, 2009

Tuesday, December 8, 2009

Wednesday, December 2, 2009

Wednesday, November 18, 2009

Saturday, November 14, 2009

Thursday, November 5, 2009

रिश्ते

जो याद आयीतो आँखें भिगो गए रिश्ते
शहर की भीड़ में बच्चों से खो गए रिश्ते।
सुलग रहा है हर एक घर सुलग रहा आँगन
दिलों में ऐसे कोई आग बो गए रिश्ते।
मेरा ख्याल था महकेंगे ताजगी देंगे
मगर ख्याल में कांटे चुभो गए रिश्ते
मेरा वजूद जला कर खिसक गए तो भी
जरा सी देर मे लो ख़ाक हो गए रिश्ते।
हरेक रात आंसुओं से भरी होती है
लिपट कर मुझसे मेरे साथ सो गए रिश्ते।

साभार:अनजान लेखक

Wednesday, November 4, 2009

Sunday, November 1, 2009

DHRRA (purana rasta)

Zindagi ka dhrra nischit hai
subah k bad
sham aayegi hi;
subah k gaye parinde
ghar lautenge hi;
ghar se kam par nikla aadmi
fir aayega hi;
par
nahi laut.ti ye
pal pal jati zindagi,
agar doob sakte ho to doobo........
agar ji sakte ho to ji lo.........
YA
yu hi ghis ghis kar
thoda thoda marte jao.........

GULAB

Mai
Gulab,
Mujhe sab jante hain
Jab mai sir uthakar;
Suraj se nazrein milakar
Muskarata hu to
Dunia
Eershya karti hai
Mujhse,
Mere saubhagya se;
Par
Kabhi dekha hai
Neeche
Mere charo taraf;
Kitne katile kanto se
Ghira hua hu mai;
Tum bhi
Bus
Ek bar
Meri tarah
In kanto bhari kathinaiyon se nikalkar
Khil jao;
Fir,
Sab dekhenge tumhe
Aur tum
Muskraoge
Meri tarah..............

Saturday, October 31, 2009

Wednesday, October 28, 2009

प्रश्नचिन्ह

हर प्रश्नचिन्ह तलाशता है

एक सटीक उत्तर

तभी पूर्णता को प्राप्त करता है

जब उसका अस्तित्व

उत्तर से संतृप्त हो जाता है,

प्रश्नचिन्ह प्रतीक हैं-

अन्धकार के अज्ञान के

क्योंकि ज्ञान प्राप्त होते ही

हटा लिए जाते हैं , वाक्य के अंत से,

कभी कभी प्रश्नचिन्ह बन जाते हैं,

एक अबूझ पहेली

जितना ही सुल्झाओगे

उलझते धागों की तरह

बना देते हैं जीवन बेतरतीब

जंगल में उगी वनस्पतियों की तरह
प्रश्नचिन्ह अकारण आते हैं जीवन मे
और बदल देते हैं सोचने के तरीके

डाल देते हैं भूचाल मन के अंदर
उद्विग्न मन दौड़ पड़ता है
इनका समाधान खोजने
और ज्यों ही मिलता है उत्तर
कुलबुलाकर नया प्रश्नचिन्ह
खड़ा हो जाता है , उत्तर की अपेक्षा मे
और जिंदगियां बीतती जाती हैं
इन प्रश्नचिन्हों के उत्तर की तलाश मे।

साभार: बी डी पाण्डेय

Wednesday, October 21, 2009

Monday, October 19, 2009

पाकिस्तान को एक हिन्दुस्तानी शायर की हिदायत

पाकिस्तान के लोगों में पाकिस्तान की हकूमत और पाकिस्तानी मीडिया के ज़रिए ये बात फैलाई जाती है कि हिन्दुस्तान में जो मुसलमान हैं उन्हें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...उनपर ग़मों के पहाड़ ढाए जाते हैं...इस बात को मद्देनज़र रखते हुए एक हिन्दुस्तानी शायर ने पाकिस्तान की मीडिया, पाकिस्तान की हुकूमत और पाकिस्तान की आवाम को मुखातिब करते हुए ये नज़्म कही... जो आपकी पेश-ए-खिदमत है !

तुमने कश्मीर के जलते हुए घर देखे हैं



नैज़ा-ए-हिंद पे लटके हुए सर देखे हैं


अपने घर का तु्म्हें माहौल दिखाई न दिया


अपने कूचों का तुम्हें शोर सुनाई न दिया


अपनी बस्ती की तबाही नहीं देखी तुमने


उन फिज़ाओं की सियाही नहीं देखी तुमने


मस्जिदों में भी जहां क़त्ल किए जाते हैं


भाइयों के भी जहां खून पिए जाते हैं


लूट लेता है जहां भाई बहन की इस्मत


और पामाल जहां होती है मां की अज़मत


एक मुद्दत से मुहाजिर का लहू बहता है


अब भी सड़कों पे मुसाफिर का लहू बहता है


कौन कहता है मुसलमानों के ग़मख़्वार हो तुम


दुश्मन-ए-अम्न हो इस्लाम के ग़द्दार दो तुम


तुमको कश्मीर के मज़लूमों से हमदर्दी नहीं


किसी बेवा किसी मासूम से हमदर्दी नहीं


तुममें हमदर्दी का जज़्बा जो ज़रा भी होता


तो करांची में कोई जिस्म न ज़ख्मी होता


लाश के ढ़ेर पे बुनियाद-ए-हुकूमत न रखो


अब भी वक्त है नापाक इरादों से बचो


मशवरा ये है के पहले वहीं इमदाद करो


और करांची के गली कूचों को आबाद करो


जब वहां प्यार के सूरज का उजाला हो जाए


और हर शख्स तुम्हें चाहने वाला हो जाए


फिर तुम्हें हक़ है किसी पर भी इनायत करना


फिर तुम्हें हक़ है किसी से भी मुहब्बत करना


अपनी धरती पे अगर ज़ुल्मों सितम कम न किया


तुमने घरती पे जो हम सबको पुरनम न किया


चैन से तुम तो कभी भी नहीं सो पाओगे


अपनी भड़काई हुई आग में जल जाओगे


वक्त एक रोज़ तुम्हारा भी सुकूं लूटेगा


सर पे तुम लोगों के भी क़हर-ए-खुदा टूटेगा..

जय हिन्द

- मसरूर अहमद

 

Thursday, October 15, 2009

शहर लखनऊ

लखनऊ मेरे शहर, मेरे शहर,मेरे शहर,
तेरी मुमताज़ रौनकें, निहार लूँ तो चलूँ,
शीश-ऐ-हर्फ़ में तुझको, उतार लूँ तो चलूँ,
चंद लम्हे सुकून से गुजार लूँ तो चलूँ,
ऐ मुहब्बत तुझे पुकार लूँ तो चलूँ।

* किसी शायर की कलम से

Monday, October 12, 2009

Sunday, October 11, 2009

Friday, September 4, 2009

for all those who teach us!!

A selection from 'Guru Gita' as given in Uttarakhand section of 'Skanda Purana' in the form of a dialogue between Shiva and Uma (Shakti)

गुरु ब्रम्हा गुरु विष्णु,
गुरु देवो महेश्वरः,
गुरु साक्षात् परम ब्रम्ह,
तस्मै श्री गुरुवे नमः...

Guru is Brahma, Guru is Vishnu, Guru is Lord Maheshwara. Guru is verily the supreme reality. Sublime prostrations to Him.

ध्यानमूलं गुरु मूर्ति,
पूजामूलं गुरु पदं,
मंत्र मुलं गुरु वाक्यम,
मोक्ष मुलं गुरु कृपा....

The bestowal of liberation is only the Guru's grace. Real worship is of the Guru's feet. The basis of all mantras is the words of the Guru. The bestowal of liberation is only the Guru's grace.

अखंडा मंडलाकारं,
व्याप्तं येना चराचरम
तट पदं दर्शितं येना
तस्मै श्री गुरवे नमः....
I prostrate to the Sadguru by whom the whole world, comprising of unbroken consciousness, is pervaded and filled through and through in every moving and unmoving object. Sublime salutations to the Guru who is established in That and who has awakened me to its realisation.

मानाथः श्री जगन्नाथ,
मद्गुरू श्री जगद्गुरु
मदात्मा सर्वभूतात्मा
तस्मै श्री गुरवे नमः

My Lord is the Lord of the Universe. My Guru is the Guru of the whole world. My Self is the Self of all beings, therefore I prostrate to my Guru who has shown me this.

ज्ञान शक्ति समरुद्हम,
तत्वा माला विभूषितम
भुक्ति मुक्ति प्रदाता च
तस्मै श्री गुरवे नमः

He who is established in spiritual knowledge and power, who is adorned with the garland of truth, the Reality, He who bestows both liberation and enjoyment here in this world... to that Guru sublime, Salutations.

स्थावरं जंगमं व्याप्तं
यत्किंचित सचराचरम
तत्पदं दर्शितं येना
तस्मै श्री गुरवे नमः
Whatever is moving and unmoving and that which pervades whatever is animate and inanimate, to that Guru who reveals all these things, sublime Salutations.

चिन्मयम व्यापितं सर्वं
त्रिय लोक्यं सचराचरम
तत्पदं दर्शितं येना
तस्मै श्री गुरवे नमः

I prostrate to the Guru who has made me realise that essence which pervades past, present and future and all things moving and unmoving.

चैतान्यम शाश्वतं शान्तं
व्योमातीतहा निरंजनः
बिंदु नाद कला तीतः
तस्मै श्री गुरवे नमः

Prostrations to the Guru who is eternal, peaceful, unattached, full of light and knowledge, beyond the stages of Nada, Bindu and Kala, and who transcends even the ether

Sunday, August 30, 2009

बूँदें बारिश की

बारिश की बूँद!
हवाओं के रथ पर सवार,
सागर का दामन छोड़कर,
गई थी बादल के पास,
शायद!
ये सोच कर की वही आशियाना होगा,
उसका।
और सागर शांत सा,
बस देखता रहा...
और वो चली गई थी,
अपने बादल के पास।
काफ़ी दिनों तक अठखेलिया करते हुए,
विचरती रही खुले आसमान में,
कभी तारो की महफ़िल में,
कभी चांदनी में,
मदहोश सी!
बादल की बाहों में,
उसी क आगोश में खोती चली गई...
और सागर बेचारा खामोशी से,
देख रहा था....
कभी ख़ुद को कोसता....
कभी अपनी नियति मान कर,
शांत हो जाता॥
उमड़ता रहा गरजता रहा॥
शायद तड़पन थी उसकी...
जो लहरों का रूप लेकर किनारे से टकरा रही थी॥
और फ़िर.....
बहारो ने रुख बदला,
घटाए छाई,
उस नासमझ को पता ही न चला,
और वो गिर रही थी,
अपने पल भर के आशियाने से.....
रोती हुई,बिलखती हुई.....
शायद पछता रही थी अपनी नादानी पर,
और बादल!
मुस्कराता हुआ,लहराता हुआ...
गुजर रहा था,
कोई दूसरी बूँद की तलाश में।
और वो बूँद,
शकुचाती हुई,शर्माती हुई,
धीरे धीरे बढ़ रही थी....
बढ़ रही थी,
सागर के पास,
और सागर,
अपनी बाहें पसारे,सब कुछ भुलाकर,
इंतज़ार कर रहा था,
अपनी प्यारी सी बूँद का!!!

Saturday, August 29, 2009

जीने का सहारा हो जाएगा

वक्त वह भी था- गुज़र गया
वक्त ये भी है गुज़र - जाएगा
ख्वाबों के महलों में रहने वाले
तू ख्वाबों सा ही बिखर जाएगा
क्यों तुझे सताती है याद उस शहर
वहां अब कौन है तेरा - तू किसके घर जाएगा
अनजान राहों में मंजिल तलाशने वाले
सम्हल कर रहना वरना फ़िर से धोखा खाएगा
भागता फिरता है तू जिन सायों के पीछे
एक दिन उन्हीं के अंधेरों में गुम हो जाएगा
मंजिलों के फेर में मत पड़
तू मुसाफिर है मुसाफिर सा ही रह
वरना अपने आप से भी जुदा हो जाएगा
शबे फुरकत भी गुज़र जायेगी
शबे कुरबत सी ही
जो गया था तुझे छोड़कर अकेला
वो अकेला ही तेरे पास आयेगा
ढलते हुए सूरज से यारी रख ऐ दोस्त
गर उगते हुए सूरज के पीछे भागा
तो तू भी इसी भीड़ का हिस्सा हो जायेगा
नहीं मिलती राहत गर महफिलों में
तो दिल लगा तनहाइयों से
वरना तू भी मेरी तरह
यार की गलियों का बंजारा हो जायेगा
बस्तियां गर हैं वीराँ
तो आशियाँ बना जंगलों में
वरना तू बेघर बेसहारा हो जाएगा
तू नशे में है गर तो नशे में ही रह है
गर नशा उतरा तो तू भी
मेरी ही तरह बावरा हो जाएगा
साहिलों पर बैठकर ढूंढता है किनारे
एक बार दरिया में तो उतर कर देख
मझधार ही ख़ुद तेरा किनारा हो जाएगा
इश्क करना है तो कर अपने आप से
वरना तू भी दुनिया की नज़रों में बेचारा हो जाएगा
खुशियाँ कभी साथ नहीं निभाती ऐ दोस्त
हो सके तो कर ले ग़मों से यारी रख
कम से कम जीने का सहारा हो जाएगा

Friday, August 14, 2009

आज़ादी के 63 साल

साथियों,
कल हम आज़ादी की 63वीं सालगिरह मन रहे हैं. यह आज़ादी जो क़रीब डेढ़ सौ सालों से भी ज़्यादा चले उस मुक्ति संग्राम का नतीजा है जिसको पाने के लिए हमें असंख्य देशभक्त वीरों ने अपने प्राणों की आहुति देने में ज़र्रा बराबर भी गुरेज़ नहीं किया. मगर क्या आज का देश वही देश है जिसकी उन्होंने तमन्ना की थी? पिछले छह दशकों के विकास के सारे दावों के बीच एक तरफ़ सत्तर फ़ीसदी से भी ज़्यादा आबादी ज़िन्दगी की बुनयादी सहूलातों से मुस्तस्ना हैं तो दूसरी तरफ़ चाँद ऐसे लोग हैं जो देश की सारी संपत्तियों को हथियाए ही बैठे हैं. सारे रिसोर्सेज़ पर
उनका क़ब्ज़ा बरक़रार है. जावेद अख़्तर ने खूब कहा है:
ऊँचे मकानों से घर मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए.


आज़ादी के ६३ साल के बाद जो हिन्दोस्तान हम देख रहे हैं उसको शायद हमारे उस दौर के शुअरा ने काफी पहले महसूस कर लिया था. इस झूठ-मूठ की आज़ादी को उन्होंने बहुत पहले ही भांप लिया था, तभी तो फैज़ अहमद 'फैज़' ने कहा:
ये दाग़-दाग़ उजाला ये शब-ग्दीज़ा सहर,
वो इन्तेज़ार था जिसका वो यह सहर तो नहीं.


आज़ादी का यह ड्रामा जिसने मुल्क को बांटा, हिन्दू मुस्लमान को बांटा. हिंदू और मुसलमान दोनों एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो उठे. पंजाब में हिंदुओं और सिखों का क़त्लेआम हुआ तो और बंगाल में मुसलमानों का. इंसानियत मौत के दरवाज़े पर खड़ी मुस्कुराती रही और हैवानों का राज्य हो गया. तब अली सरदार जाफ़री ने मुल्क के नेताओं से यह सवाल पूछा:
कौन आज़ाद हुआ, किसके माथे से स्याही छूटी
मेरे सीने में दर्द है महकूमी का
मादर-ए-हिंद के चेहरे पे उदासी है वही.

खंज़र आज़ाद है सीनों में उतरने के लिए
मौत आज़ाद है लाशों पे गुजरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ, किसके माथे से स्याही छूटी..

तो दूसरी तरफ मजाज़ ने कहा:
यह इन्क़लाब का मुसदा है इन्क़लाब नहीं,
यह आफ़ताब का परतव है आफ़ताब नहीं.


डा.'राही' मासूम रज़ा ने नेताओं और फिरक़ापरस्त लोगों की तरफ उंगली उठाते हुए कहा कि,
एक मिनिस्टर है तस्वीर के वास्ते
और एक मिनिस्टर है ताजिर के वास्ते
और जनता है सिर्फ ज़ंजीर के वास्ते.


हिंदुस्तान का बंटवारा करवाने वालों की तरफ़ इशारा करते हुए सरदार जाफ़री ने मज़ीद कहा:
तुमने फ़िरदौस के बदले में जहन्नुम लेकर
कह दिया हमसे कि गुलिस्तां में बहार आयी है,
चंद सिक्कों के एवज चंद मिलों की ख़ातिर तुमने
शहीदाने वतन का लहू बेच दिया
बाग़बांं बन के उठे और चमन बेच दिया..

हिंदुस्तान के बंटवारे की सख़्त मुख़ालफत करते हुए मौलाना आज़ाद ने 1929 में कहा,
"अगर आज़ादी फरिश्ता कुतुब मीनार पर खड़े होकर ये ऐलान करे कि हिंदुस्तान को 24 घंटे में आज़ादी मिल सकती है बशर्ते कि वो हिंदू और मुसलमान की दोस्ती को अलग कर दे तो मैं कहूंगा कि भारत को ऐसी आज़ादी नहीं चाहिए."

इस बँटवारे को देखकर डा.'राही' मासूम रज़ा ने ये लिखा:
चंद लुटेरे बड़े आदमी बन गये,
और हम अपने ही घर में शरणार्थी बन गये.


मगर बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि 63 साल के बाद भी हम भगत-ओ-गाँधी के ख़्वाबों का हिंदुस्तान न बना सके. हिंदुस्तान आज सरमाये के दल्लालों की क़यादत में पूरे ज़ोर के साथ पूंजीवादी सुधारों के रास्ते पर गामज़न है. इन पूंजीवादी सुधारों से मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों के दुख-दर्द बढ़ते जायेंगे, चाहे ये सुधार 'मानवीय चेहरे' के साथ लागू किये जायें या उसके बग़ैर. उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के एजेंडे को हराने के लिये लड़ने के साथ-साथ, हमें पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने और उसके स्थान पर समाजवाद की स्थापना करने की तैयारी करनी चाहिये. समाजवाद का मतलब है वह व्यवस्था जिसमें उत्पादन के साधनों पर समाज की मालिकी और नियंत्रण होगा, जिसमें सभी की सुरक्षा और खुशहाली सुनिश्चित होगी. अब सरमायदारों की हुकूमत को चुनौती देने का वक्त आ गया है.

'साहिर'लुधयानवी के शब्दों में:
जंग सरमाये के तसल्लुत से,
अम्न जम्हूर की ख़ुशी के लिए..

तो हमारी जंग इस सरमाये के तसल्लुत के ख़िलाफ़, पूंजीवाद के ख़िलाफ़, नाबराबरी के ख़िलाफ़ और सारे शोषण के विरूद्व जारी रहे गी.

इंक़लाब जिंदाबाद!!

इन्क़लाबी सलाम के साथ,
आतिफ रब्बानी

Wednesday, August 12, 2009

यौम-ए-आज़ादी (Independence Day)

यौम-ए-आज़ादी मनाने का अब अरमान नहीं,
क्योंके यह भगत-वो-गांधी का हिन्दोस्तान नही.

बापू ने मुल्क बनाया था ग़रीबों के लिए,
मगर ग़रीब का जीना यहाँ आसान नहीं.

शहर जलते रहे ये बांसुरी बजाते रहे,
इन शहंशाहों में शायद कोइ इंसान नहीं.

तुझे बचाने को मरना पड़ा तो हाज़िर हैं,
यह सच्चा इश्क़ है शाह का फरमान नहीं.

वतन की इज़्ज़त की मिल जुल के दुआएँ मांगें,
हमारा फ़र्ज़ है उस पर कोइ एहसान नहीं..

Monday, August 10, 2009

स्वास्थ्य असंतुलन

देश में भारी आर्थिक असमानता, भयावह ग़रीबी व शोषण कोई नई बात नहीं है, और नई बात ये भी नहीं कि देश में स्वास्थय सेवाओं की स्थिति बहुत ही निराशाजनक और पतनशील है. जहाँ एक तरफ सार्वजनिक स्वास्थय सेवाएं वित्त की कमी, दवाईओं की कमी, आवश्यक वस्तुओं की कमी, कुशल कर्मियों की कमी से जूझ रही हैं. वहीं दूसरी तरफ स्वास्थय सेवाओं में निजी भागीदारी दिन पर दिन बढ़ रही है और इस निजी भागेदारी का मतलब है ग़रीबों के लिए इन सेवाओं का अपवर्जित(exclusion), महंगा और अप्राप्य होना. और शायद यही वजह है भारत के स्वास्थय सूचक (health indicators) बहुत ही ख़राब दशा को निरुपित करते हैं. और परिणाम स्वरुप भारत को मानव विकास सूचकांक(Human Development Index) में काफी नीचे स्थान मिलता है.

यह सर्वमान्य है कि स्वास्थय सेवाओं में घोर क्षेत्रीय असमानता है. इन असमानताओं को हम दोनों स्तरों के संकेतकों- प्रक्रिया और परिणाम संकेतकों के ज़रिये देख सकते हैं. देश की औसत स्वास्थ्य स्थिति बहुत ख़राब है. स्वास्थय पर प्रति व्यक्ति ख़र्च भी अंतरराष्ट्रीय मानकों से बहुत कम है. हमारा सार्वजनिक स्वास्थ्य ख़र्च(public health spending) दोनों रूपों में-सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा(share of GDP) और प्रति व्यक्ति खर्च(per capita), दुनिया में सबसे कम ख़र्च करने वालों देशों में से है. लेकिन अगर हम राज्यों को देखें तो यहाँ तीव्र असंतुलन नज़र आता है. इस पूरे स्पेक्ट्रम में एक तरफ वे राज्य हैं (जैसे- केरल, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु) जहाँ देश कि 18.8 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, और इनके स्वास्थ्य संकेतक(health indicators) अधिक विकसित मध्यम आय(more developed-middle income) देशों-वेनेजुएला, अर्जेटीना और सऊदी अरब के जैसे अथवा सामान हैं. और स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर बीमारू राज्यों (उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम, राजस्थान, बिहार और झारखंड) का समूह है जहाँ देश की लगभग 42 प्रतिशत जनसँख्या निवास करती है और इन राज्यों के स्वास्थय संकेतक उप-सहारा देशों और अन्य कम आय वाले देशों-सूडान, नाइजीरिया और म्यांमार आदि के अत्यंत क़रीब या यूँ कहें कि बराबर हैं.

राज्यों के बीच इस असंतुलन की वजह न सिर्फ़ परिणामों से संबंधित है बल्कि स्वास्थ्य व्यय का वित्तपोषण करने से भी सम्बंधित है. और चूँकि ग़रीब राज्यों में स्वास्थय पर, कम सरकारी ख़र्च का प्रावधान रहा है और यह कम स्वास्थय-व्यय भी असंतुलन का एक कारण है. मिसाल के तौर पर 2001-02 में, उत्तर प्रदेश में , जन स्वास्थ्य ख़र्च कुल स्वास्थ्य व्यय के प्रतिशत के रूप में 7.5 प्रतिशत (या 84 रुपये प्रति व्यक्ति) जबकि, मिज़ोरम में 89.2 प्रतिशत (या 836 रुपये प्रति व्यक्ति ). अफ़सोस की बात यह है कि देश के प्रमुख राज्यों में से कोई भी राज्य लोक स्वास्थ्य खर्च के बुनियादी स्तर यानि प्रति व्यक्ति ख़र्च 500 रुपये को हासिल न कर सका है.

क्षेत्रीय असमानताओं को चिकित्सा कर्मियों की उपलब्धता के परिप्रेक्ष्य में भी देख सकते हैं. पूरे देश में एलोपैथिक स्नातक डॉक्टरों की उपलब्धता केवल 0.6 प्रति हजार है. और ये उपलब्धता काफ़ी असम(uneven) है. दक्षिण के राज्यों में और अन्य अपेक्षाकृत अधिक विकसित राज्यों में डॉक्टरों का सांद्रण(concentration) अधिक है. मिसाल के तौर पर, पंजाब में डॉक्टरों की उपलब्धता उत्तर प्रदेश के मुक़ाबले पाँच गुना है. यही नहीं, इन डॉक्टरों का अभिसरण(convergence) शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में अधिक है बनिस्बत ग्रामीण क्षेत्रों के. इस प्रकार ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्र या तो कुछ हद तक डॉक्टरों से वंचित हैं या इन क्षेत्रों में डॉक्टरों की उपलब्धता कम है.

इलक़ायी गैर बराबरी को एक दूसरे ज़ाविए से भी देखा जा सकता है और यह है मेडिकल संस्थाओं और मेडिकल कालेजों की उपलब्धता. मेडिकल कालेजों की उपलब्धता भी चिकित्सा कर्मियों की तरह काफी असमान रूप से वितरित है. दक्षिणी के चार राज्यों में, पूरे देश के मेडिकल कॉलेजों के 63 प्रतिशत कॉलेज और पूरे देश की उपलब्ध कुल सीटों की 67 प्रतिशत सीटें मौजूद हैं. चिकित्सा कर्मियों की सबसे ज़्यादा कमी बीमारू राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़), उड़ीसा और हरियाणा के साथ साथ पूर्वोत्तर के राज्यों में हैं. स्वस्थ्य कर्मियों का नियंत्रण और निगरानी में कमी भी बहुत कुछ अनापेक्षित नतीजे देती है. डॉक्टरों, नर्सों, दंत चिकित्सकों और अन्य लोगों के लिए सांविधिक परिषदों क़रीब-क़रीब बेकार हैं.

चिकित्सकों, डॉक्टरों, चिकित्सा कर्मियों की अनुपलब्धता एवं कमी, चिकित्सा सम्बन्धी फंड्स की कमी, स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे की कमी और विधि व विनियमन की कमी, लोगों को निजी स्वास्थ्य सेवाओं को लेने को मजबूर करती है. और इसका ख़ामियाज़ा ग़रीब राज्य के ग़रीब लोगों को भुगतना पड़ता है. क्यूंकि ग़रीब राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थय सेवाओं का सरकारी प्रावधान या तो अनुपलब्ध है या अत्यंत अपर्याप्त है. इस प्रकार, सबसे गरीब राज्यों में, अस्पतालीकृत बीमारियों की वजह से ग़रीब परिवारों को वित्तीय संकट में फंसने की बहुत ही ज़्यादा संभाव्यता रहती है. एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार बिहार और उत्तर प्रदेश के अस्पताल में भर्ती क़रीब एक तिहाई से अधिक लोग चिकित्सा व्यय के कारण ग़रीबी की ज़द में आ गए.

भारत में, स्वास्थ के लिए जेबी खर्च(out-of-pocket expenditure) या निजी खर्च न सिर्फ ज़्यादा हैं बल्कि हाल के दिनों में तेजी से बढ़ा भी हैं. एनएसएसओ के सर्वेक्षण के अनुसार, 1995-96 और 2003-04 के बीच ग्रामीण अस्पताल में भर्ती लागत में 78 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि शहरों में अस्पतालीकरण की लागत में 126 प्रतिशत तक का इज़ाफ़ा हुआ. ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वास्थय पर निजी ख़र्च अक्सर उन परिवारों को वहन करना होता है जो ये ख़र्च बर्दाश्त न करने की स्थिति में होते हैं. अतः जनसँख्या का वो पांचवा हिस्सा जो ग़रीबी रेखा के बिलकुल ऊपर है, को अगर कभी किसी गंभीर स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़े तो वे स्वतः ग़रीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे.

'चिकित्सात्मक दवाओं पर ख़र्च'(expenditure on therapeutic drugs) स्वास्थय ख़र्च की वह मद है जिसमें लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है. गोकि, स्वास्थय ख़र्च कुल जेबी ख़र्च का लगभग 75 प्रतिशत है, लेकिन इस ख़र्चे से उन लोगों कि हालत ज़्यादा ख़राब होती है जो लोग ग़रीब राज्यों निवास करते हैं. वजह बिलकुल साफ़ है- ग़रीब राज्य मतलब स्वास्थय पर कम सरकारी ख़र्च मतलब राज्य के निवासियों का ज़्यादा निजी ख़र्च. राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चिकित्सा व्यय में औषधियों का हिस्सा दोनों, आतंरिक रोगी(in-patient) व वाह्य-रोगी(out-patient) के रूप में काफी अधिक, लगभग 90 प्रतिशत रहा है. औषधियों पर यह बढ़ती व्यय न केवल नई पेटेंट व्यवस्था का प्रभाव दर्शाती है बल्कि भारतीय औषधि निर्माण क्षेत्र की अपर्याप्त विनियमन को भी दिखाती है.

असमानताओं के विभिन्न स्रोतों और कारणों पर दृष्टिपात करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थय सेवा के क्षेत्र में सरकार को आगे आना ही नहीं बल्कि पूरे स्वास्थय सेवा को अपने हाथ में लेना होगा. और इन सब कामों के लिए संसाधनों की कमी का रोना रोना और यह कहना कि एक ग़रीब देश में संसाधनों की कमी ही मौलिक बाधा है, एक बेबुनियाद बात है. हम ज़्यादा दूर नहीं बल्कि अपने पड़ोसी अपेक्षाकृत कम आमदनी वाले देश- बंगलादेश और श्रीलंका से सबक़ ले सकते हैं जो अपनी अपेक्षाकृत कम आमदनी के बावजूद स्वास्थय के संदर्भ में हमसे ज़्यादा विकसित हैं.

Friday, August 7, 2009

मैं इंतज़ार आज भी किया करता हूँ

मै इंतज़ार आज भी किया करता हूँ
उस पहली बारिश का
साथ चाय पीने की उस गुज़ारिश का
कैंटीन की उस चाय का
उन जूठे समोसों का
उस खामोश हंसीं का
उस मिलने की बेकरारी
और न मिल पाने की बेबसी का
मैं इंतज़ार आज भी किया करता हूँ
जादे की उस धूप का
गर्मी की उन शामों का
वक्त-बेवक्त मोबाइल पर आने वाले
उन मैसेजों का
उन बेचैन रातों का
उन हडबडाहट से बाहरी सुबहों का
मैं इंतज़ार आज भी किया करता हूँ
साथ देखी उस पहली पिक्चर का
तेरी उस पहली छुअन का
तेरी उन छोटी-छोटी शरारतों का
तेरे पहली नज़र का
तेरे पहलूँ में गुज़रीं हुई शामों के उस मंज़र का
तेरे साथ बीते उस सफ़र का
मैं इंतज़ार आज भी किया करता हूँ
ये जानते हुए भी कि ये इंतज़ार
सिर्फ एक इंतज़ार रह जायेगा
बीता हुआ वक़्त फिर कभी लौट कर नहीं आयेगा
ये इंतज़ार मुझे ताउम्र तड्पाएगा
मैं तेरा इंतज़ार आज भी किया करता हूँ

मिलना कोई जरूरी तो नही

मिलना कोई जरूरी तो नहीं

बात करना भी कोई जरूरी तो नहीं

मिल के भी नहीं मिल पाये वो हमसे

फ़िर भी दिलों में कोई दूरी तो नहीं

उनकी हर एक बात है याद हमें इबादत की तरह

उनसे दूर जाने के लिए

उनकी यादों को मिटाना जरूरी तो नहीं

हर तरफ़ बिखरा है जो खुशबू की तरह

उसका ख़ुद आना जरूरी तो नहीं

हर वक्त करूँ प्यार का इज़हार

ऐसी भी क्या मजबूरी है

जो बात झलकती हैं आंखों से

उसे शब्दों में बताना जरूरी तो नहीं

वो भले ही भूल जायें हमको

पर हम उन्हें याद भी न आयें

ये जरूरी तो नहीं

जानता हूँ कि न मिल पाएंगे वो अब मुझको

पर मैं उन्हें पाने कि ख्वाहिश भी न

मेरी कोई मजबूरी तो नहीं

न कर पाए वो वफ़ा हमसे

जरूर कोई मजबूरी रही

होगीपर मैं उनसे बेवफाई करूँ

मेरे प्यार में ऐसी कोई कमजोरी तो नहीं

न मिल पाया मेरे प्यार को किसी रिश्ते का नाम न सही

मेरे इश्क के मुक्कमल होने के लिए

ज़माने की मंजूरी ज़रूरी तो नहीं

Saturday, May 30, 2009

माफ करना

देखकर हुस्न तेरा
ग़र हो जाऊं शायर-दीवाना
तो
माफ करना।
बंधके खिंचा चला आऊं तेरे सदके पे बार-बार
तो
माफ करना।
हो जाए ग़र इश्क तुझे हौले-हौले मुझसे
तो
माफ करना।
उड़ जाए नींद रातों की तेरी ग़र मुझसे
तो
माफ करना।
बेचैन है ये दिल-ए-नादां ग़र थाम लो लगाम
तो अच्छा,
ख़ता हो जाए वरना
तो
माफ करना।
छुपाकर दर्द अपना कांटों में खुशबू बिखेरना आता है।
गैर तो गैर अपने भी गर ना समझें तो मरहम लगाना आता है।।
हम पर तोहमत लगाने से पहले झांक लो जरा अपने जिगर में भी।
ग़र शूल शेष हों दामन में, सजा दो चेहरे पे मेरे वो भी।।
कभी-कभी यूं भी हमने, ग़म ही ग़म उठाए हैं।
पीकर एक-एक घूंट आंसू का, औरों को खुशी दिलाए हैं।।

Tuesday, May 5, 2009

भूख का अर्थशास्त्र

यूँ तो भूख सबको लगती है, बीमारियाँ सबको घेरती हैं. भय सबको सताता है और मौत सबको आती है. मगर इस भूख का एहसास उसे अधिक होता है जिसे भूखे पेट सोना पड़ता है. ख़ाली पेट चिर निद्रा में जाने का संताप सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं 'जिनके हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं'... हम और आप जैसे अघाए हुए लोग नहीं. वे तो क़तई नहीं जिनके लिए भूख एक सच नहीं सिर्फ एक अर्थशास्त्र का विषय भर है.

भूख का जो अर्थशास्त्र होता है उस पर विचार करने के लिए बहुत सारे विशेषज्ञ हैं जो जहाजों में बैठ कर पूरी दुनिया में सेमिनारों आदि में अपने उच्च विचार व्यक्त करते रहते हैं कि ग़रीबी और भूख से कैसे निपटा जाए. वे भरपेट नाश्ता कर के आते हैं, लंच में उनके लिए थालियां सजी होती है और डिनर में भोजन का शाही इंतजाम होता है.

ये लोग भूख को आंकडों में बदल देते हैं. मौत भी इनके लिए गिनती होती है. बहुत सारे न समझ में आने वाले अर्थशास्त्र के समीकरणों के ज़रिये ये हमें समझाते हैं कि इस आंकडें में वह आंकडा मिला दो तो भूख और गरीबी के सारे पापों का अंत हो जाएगा. दिक्क़त सिर्फ यह है कि आंकडों से पेट भरता नहीं हैं.

जिसे ग़रीबी रेखा कहा जाता है वह दरअसल मौत की या मौत से भी बदतर ज़िन्दगी का एक संधि बिंदु है जहां करोड़ों लोग जन्मते हैं और इसी बिंदु पर उनकी ज़िन्दगी स्थगित हो जाती है. होने को अपने देश में बच्चों के लिए मिड डे मील और अभागों के लिए लंगर की शैली में रोटी या भात की व्यवस्था की जाती है लेकिन यह पेट तो भरती है मगर कुपोषण और अल्प पोषण के शिकारों की संख्या बढाती हैं. जो बच्चे स्कूल जाते ही इसलिए हैं कि उन्हें एक वक्त का भोजन मिल जाएं वे पढाई का मतलब पेट भरने से समझते है और जिस तरह का भोजन उन्हें नसीब होता है उससे उन बेचारों की जवानी तो आती नहीं, देखते देखते वे बूढ़े हो जाते हैं और भूख की यह विरासत अपनी अगली पीढ़ियों को सौंप कर चले जाते हैं.

जितना पैसा सरकारी और दुनिया की तथाकथित कल्याणकारी संस्थाओं द्वारा भूख और ग़रीबी के अध्ययन पर खर्च किया जाता है वह अगर सीधा ग़रीब की दहलीज़ तक पहुंचा दिया जाए तो आधी समस्या वैसे ही हल हो जाएगी.

हमारा देश अब डेढ़ अरब नागरिकों का देश बनने जा रहा है और इनमें से कम से कम चालीस करोड़ लोग ऐसे है जिन्हें ग़रीबी की सरकारी सीमा रेखा के नीचे माना जाता है. यह परिभाषा भी अपने आप में एक माज़ाक़ है. जिसे दिन भर में 2200 कैलोरी के बराबर भोजन मिल जाए और जिसकी औसतन पांच सदस्यों के परिवार की आमदनी महीने में चार सौ चौदह रुपए से ज्यादा हो उसे अपनी सरकार ग़रीब नहीं मानती. 2200 कैलोरी का मतलब है पांच रोटियां और एक कटोरी दाल या काम चलाऊ तरकारी. जो लोग इस आधार पर ग़रीब और अमीर के बीच का विभाजन करते हैं वे असल में हमारे समाज और देश दोनों के अपराधी हैं और उनके लिए जो भी सज़ा तय की जाए वह कम ही होगी.

हमारे देश में अनाज की कमी नहीं है. भारत में ग़रीब और अमीर के बीच का फासला इतना असाध्य है कि उसके बारे में सोच कर डर लगता है. एक तरफ लाखों करोड़ के ख़ज़ाने वाले रईस हैं जिन्हें पोस्टर छाप कर बताया जाता है कि भारत अब विकासशील नहीं, विकसित देश है. दूसरी ओर गांवों में खेतों और शहरों में फुटपाथों पर सोने वाले लोग है जिनके लिए पांच रुपए का सिक्का अमावस के चांद की तरह होता है. भारत विकासशील नहीं, विनाशशील देश है और जब तक यह सच हम स्वीकार नहीं करेंगे तब तक हम खुद से और अपनी आत्मा से सरेआम झूठ बोलते रहेंगे..

Monday, April 20, 2009

नव उदारवादी पूंजीवाद-बाज़ारवाद की व्यवस्थागत बीमारी का नतीजा है यह वैश्विक आर्थिक संकट

लगातार गहराते वैश्विक आर्थिक संकट(Global Financial Crisis) के बीच हाल ही में प्रकाशित विश्व बैंक(World Bank) की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ इस साल वैश्विक जी डी पी(Global G.D.P.) की वृद्धि अपनी क्षमता से 5 फीसदी नीचे रह सकती है . अब इस में कोई संदेह नहीं रह गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक मंदी के संकट में फंस चुकी है. इस वैश्विक मंदी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना अब बिलकुल यक़ीनी हो गया है.

तकनीकी और पारिभाषिक तौर पर यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में नहीं है लेकिन यह पूरी बहस इसलिए बेमानी है कि शास्त्रीय तौर पर मंदी की चपेट में न होने के बावजूद अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा काफ़ी हद तक मंदी जैसी स्थिति से गुज़र रहा है. पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से लाखों कर्मचारियों व श्रमिकों को निकाला दिया गया है और अभी भी निकाला जा रहा है. यही नहीं, चाहे वह औद्योगिक उत्पादन खासकर मैन्यूफैक्चरिंग का क्षेत्र हो या निर्यात का, शेयर बाजार हो या नए निवेश का सवाल-हर ओर से लगातार निराशाजनक खबरें आ रही हैं.

योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार 2008-09 में हमारी वृध्दि दर 6.5 फीसदी से 6.7 फीसदी के बीच रही. और उनके मुताबिक़ अगले वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान भी वृध्दि दर यही रहेगी और कैलेंडर वर्ष के आधार पर 2009 पिछले साल के मुक़ाबले उल्लेखनीय रूप से बुरा होगा।

वैसे मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में 6 से 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर भी कम नहीं है लेकिन इसे लेकर निश्चिंत होने या अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर गुलाबी पर्दा डालने की भी ज़रूरत नहीं है. दरअसल, यह वृद्धि दर भी अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति की सूचक नहीं है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था का एक सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र- मैन्यूफैक्चरिंग पिछले अक्तूबर से लगातार बदतर प्रदर्शन कर रहा है. याद रहे कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के प्रदर्शन से लाखों श्रमिकों की रोजी -रोटी जुड़ी हुई है। इसी तरह, निर्माण और रीयल इस्टेट क्षेत्र की स्थिति भी लगातार बिगड़ती जा रही है और इसका असर लाखों मजदूरों की आजीविका पर पड़ रहा है. निर्यात का हाल यह है कि अक्टूबर के बाद से पिछले चार महीनों में निर्यात की वृद्धि दर लगातार नकारात्मक बनी हुई है.

इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी का प्रवाह न सिर्फ कम हुआ है बल्कि काफी बड़े पैमाने पर विदेशी वित्तीय पूंजी देश से बाहर जा रही है. इसी वैश्विक आर्थिक संकट के कारण विकासशील देशों में प्रवासी श्रमिकों द्वारा भेजी जानेवाली आय में भी काफी गिरावट के आसार हैं. इस सबका असर रूपए की कीमत पर पड़ रहा है जो डालर के मुकाबले गिरकर 52 रूपए प्रति डालर के आसपास पहुंच गया है। लेकिन इस सबसे अधिक और बड़ी चिंता की बात यह है कि वैश्विक मंदी और उसके बीच लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था की असली कीमत लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों को अपना रोजगार गंवाकर चुकानी पड़ रही है.

दूसरी तरफ यह भी क़यास किया जा रहा है की मौजूदा वैश्विक मंदी के कारण विकासशील देशों में लगभग 4.6 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे. यकीनन, ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद भारत में भी होगी जो मंदी के कारण रोजगार गंवाकर या मजदूरी में कटौती के कारण एक बार फिर ग़रीबी रेखा के नीचे चली जाएइगी. इसकी वजह यह है कि भारत में ऐसे लोगों की तादाद कुल आबादी में काफ़ी है जो बिल्कुल ग़रीबी रेखा के उपर हैं और किसी भी छोटे-बड़े आर्थिक/वित्तीय झटके से तुरंत ग़रीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं. कहने की ज़रूरत नहीं है कि मौजूदा मंदी जैसी स्थिति हाशिए पर पड़े ऐसे लोगों को फिर से गरीबी रेखा के नीचे ढकेल देगी.

वैश्विक पूँजी के बेलगाम तौर-तरीकों के कारण पैदा इस संकट और इन सब सारी बीमारियों की जड़ नव उदारवादी आर्थिक नीति (Neo-Libral Economic Policy) के खिलाफ अब छात्रों, बुद्धजीवियों, किसानों, श्रमिकों और महिलाओं को आवाज़ बुलंद करना होगा..

Saturday, April 11, 2009

वोट दो

जनता जनार्दन जागो,
वोट दो
नेताओं की अकर्मण्यता पर चोट दो,
धनबलियों,बाहुबलियों के मंसूबों का गला घोंट दो,
वोट दो,वोट दो....

सुयोग्य प्रतिनिधियों पर वोटों की बौछार हो,
चालबाज़ मक्कारों को तेरी धिक्कार हो,
कर्मठ नेतृत्व के हाथों अब देश को सौंप दो,
वोट दो,वोट दो....


जाति धर्म के नाम पर अबकी तुम फँसना नहीं,

लोकलुभावन वादों पर तुम अब लुटना नहीं,

इस देश को अब एक कुशल प्रशासन की भेंट दो,

वोट दो,वोट दो...

Friday, March 27, 2009

आरज़ू घर के बूढों कि

आंखों आंखों रहे और कोई घर न हो!
ख्वाब जैसा किसी का मुकद्दर न हो !
क्या तमन्ना है रोशन तो सब हों मगर ,कोई मेरे चरागों से बढ़कर न हो !
रौशनी है तो किस काम कि रौशनी ,आँख के पास जब कोई मंज़र न हो !
क्या अजब आरज़ू घर के बूढों कि है,शाम हो तो कोई घर से बाहर न हो !

Thursday, March 26, 2009

बेकार ही शिकवा करते रहते हैं

वक्त बेवक्त वक्त से लड़ते रहते हैं

जाने किन खाबों के समंदर में डूबते उतरते रहते हैं

डर नहीं लगता था पहले किसी शै से मगर

अब हम अपने साए को देखकर भी सिहरते रहते हैं

कुछ संजों कर रख लिए थे किताबों में फूल हमने

अब उन्हीं फूलों से बातें करते रहते हैं

बीत रहा है सब कुछ एक वो ही नहीं बीतता

और फ़िर सिर्फ़ गमें इश्क हो तो सह भी लें

यहाँ तो गमें दुनिया ने भी जीना दुश्वार कर रखा है

कैसे समझाएँ अपने आपको कि

लिख गई है तकदीर अपनी ख़ाक से

हम बेकार ही शिकवा करते रहते हैं

Thursday, March 12, 2009

सब कुछ भूल जायेंगे

कौन जाने कौन क्या था
वक्त ही शायद बेवफा था
छोड़ दिया जिसको हमने अंजान समझ
वही शायद जिन्दगी का रास्ता था
बयाँ नहीं कर पाया कभी किसी से हाल-ऐ-दिल
मुझे उसकी मोह्हबत का वास्ता था
धोखा खाया है हमने अपने आप से
उसने तो कभी कुछ झूठ नहीं कहा था
चलो अच्छा हुआ जो खत्म हुआ
वैसे भी क्या वो सिलसिला था
वक्त तब भी यूँ ही गुज़र जाता था
वक्त यूँ ही अब भी गुज़र जाता है
तब भी वो हमारा साथ निभाता था
अब भी वो हमारा साथ निभाता है
बहते हुए दरिया को थामने की कोशिश मत करना यारों
हर किसी के नसीब में कहाँ ये मंज़र आता है
दर पर जा बैठा है फ़कीर आज रकीब के
दुआएं दिए जाता है बलाएँ लिए जाता है
बेकार ही तू उसकी तमन्ना में बेज़ार है-ऐ-दिल
कब किसी माली के नसीब में कोई फूल आता है
क्या कभी देखा है आइना तुमने
कौन है जो तुम्हारे लिबास
में नज़र आता है
चलो आज शाम अपने साथ बैठेंगे
बातें करेंगे--मुस्करायेंगे
और सब कुछ भूल जाएंगे
भूल जायेंगे, भूल जायेंगे

Thursday, February 26, 2009

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ........
तो क्या हुआ जो जिन्दगी हर कदम पर मारती है ठोकर।
हर बार फ़िर संभल कर मै उसे एक अरमान बनने निकला हूँ।
डूबता हुआ सूरज कहता है मुझसे... कल फ़िर आऊंगा।
मै उस कल के लिए आसमान बनने निकला हूँ।
इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ..........
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ........

Sunday, February 22, 2009

मुस्काने कि मोहलत नहीं मिलती

सबको सफ़र चुनने की आज़ादी नहीं मिलती
मंजिलें मिल भी जायें मगर कामयाबी नहीं मिलती
आवारा परिंदों की तरह उड़ जाता है वक़्त दूर कहीं
पर जाने क्यों हमें अपने गुज़रे हुए कल से आज़ादी नहीं मिलती
दिल की तिजोरी में बंद कर के रखे थे खुशियों के चाँद लम्हे
एक मुद्दत हुई उस तिजोरी की चाभी नहीं मिलती
बेझिझक किसी बच्चे की तरह घुस गया थ किसी गैर के घर में
क्या खबर थी की बड़ों को बच्चों सी आज़ादी नहीं मिलती
साहिलों पर बिखरी रेत से इस संसार में क़दमों के निशाँ तो बहुत मिलते हैं
पर किसी भी निशाँ को पहचान बेमियादी नहीं मिलती
कभी मौका मिला तो लिखूंगा तेरे बारे में भी
अभी तो ख़ुद से फुर्सत नहीं मिलती
मिलने को तो मिल जाती है हर चीज़ जिन्दगी में
बस जिनकी चाहत होती है वही नहीं मिलती
मिल जाती है आज भी बहुतों से नज़रें
पर हजारों में भी वो एक नज़र नहीं मिलती
इस कदर बेकरार है तेरे फ़िर आने की आस में ये दिल
कि किसी आलम भी रग्बत नहीं मिलती
नाहक ही परेशान है तू ए दिल
जबकि मालूम है तुझे
कि हर किसी को इस जहाँ में
मोह्हबत नहीं मिलती
झूठ कहा था मैंने भी- उसने भी
क्या खबर थी कि झूठ के पुलिंदों में
असलियत नहीं मिलती
आज बरसों बाद मिलकर समझा रहे हैं वो
इश्क का मतलब हमें
ज़रा पहले कह दिया होता
तो इतनी मुसीबत नहीं मिलती
जो समझते थे कि
समझते हैं सब कुछ हम
अब समझ में आया
कि दीवानों को कुछ भी समझने की
समझ नहीं मिलती
वक़्त अभी मोड़ पर ही है
सोचता हूँ वापस बुला लूँ
पर आवाज़ में अब वो पहले सी
ताक़त नहीं मिलती
याद कर के बीते लम्हों को
खुश तो हो सकता हूँ मगर
जिन्दगी की जद्दोजहद में फुर्सत नहीं मिलती
दोस्त बनने को तो आज भी तैयार हैं कई लोग
पर अब किसी से भी अपनी तबीयत नहीं मिलती
जज़्बात भी वही हैं
अल्फाज़ भी वही हैं
पर अब किसी भी जुबान में
तुझ सी मासूमियत नहीं मिलती
फिसल जाती है हाथ से जिन्दगी यूँ ही बिन बताये
वक़्त बहुत बेरहम है
इससे एक पल की भी मोहलत नहीं मिलती
कर के देख ली है बहुत जोर-आजमाइश हमने
अब रिश्तों में पड़ी सिलवटें मिटाने की हिम्मत नहीं मिलती
दोस्तों ने इस कदर साथ दिया है हर मोड़ पर कि
अब हमें दुश्मन बनाने कि जरूरत नहीं पड़ती
मुस्कराहटों के हर पल कर संजो के रख लेना यारों
जिन्दगी में बार-बार मुस्कराने की मोहलत नहीं मिलती
ज़ख्मों का हिसाब मत रखना क्योंकि
अपनों की दी हुई चीज़ों की कीमत नहीं लगती
मुश्किलें हल हल हो जाएँगी सारी
गर सच को सच मान लिया जाये पर जाने क्यों
सच को सच मान लेने की हिम्मत नहीं मिलती
देखकल गलियों में फिरते इन आवारा आशिकों को भी
जाने क्यों इन नए मजनुओं को नसीहत नहीं मिलती
चलो अब लौट चलें घर की ओर
जिन्दगी की इन वीरान गलियों में अब
सांस लेने की भी आज़ादी नहीं मिलती
जो देते हैं दुहाई यार की बेवफाई की
कभी झाँक कर देखेंगे अपने गिरेबाँ में तो जान जायेंगे
वफ़ा के बदले कभी बेवफाई नहीं मिलती

Sunday, February 15, 2009

सच्चे यार होते हैं

नदिया में बहती कश्तियों के
कई सवार होते हैं
किनारों पर पड़ी कश्तियों के
साथी बस खर-पतवार होते हैं
जो मन में दबे रहते हैं
वही असल जज्बात होते हैं
जो जुबान पर आ जायें
वो तो बस गुबार होते हैं
जिन्हें पतझड़ में बिखर जाने का डर नहीं होता
उन्ही गुलों से गुलशन गुलज़ार होते हैं
खौफ नहीं होता जिस मिटटी को
भट्टी की तपिश का
उसी के सहारे खड़े मीनार होते हैं
वो जो आपकी रुसवाइयों में भागीदार होते हैं
वही सच्चे यार होते हैं
बाकी तो बस दुनियादार होते हैं

Friday, February 13, 2009

मौत का पैगाम आया है

मुझे अपने ग़मों से
कुछ इस कदर मोह्हबत हो गई है कि
हर खुशी अब एक मुसीबत हो गई है
चाहतों के पुलिंदों को वक्त के जिस दरिया में बहा आया था
उस दरिया में आज जाने क्यों उफान आया है
बना ली थी आस पास अपने दुनिया की दीवार
जाने कहाँ से फ़िर ये यादों का तूफ़ान आया है
जाने आज क्या कहने
आंखों के रेगिस्तान में
गुज़रे हुए पलों की
बारिशों का पैगाम आया है
निकला था जो मुसाफिर मंजिल की तलाश में
लौट के घर आज शाम आया है
नहीं किया थे जिसने कभी शिकवा कोई
दोस्त वो लेकर जुबान आया है
बेफिक्र होकर सोते थे जिसके पहलु में हम
यार वो लेकर खंजर सरे आम आया है
यकीं नहीं होता है फिर भी सच है
कि जिसने सिखाया थ जीना
उसी के हाथों मौत का पैगाम आया है

Monday, February 2, 2009

रात से बातें करता रहा

मैं रात भर बैठा हुआ
रात से बातें करता रहा
वो कौन है जो साँस ले रहा है मेरी जगह
मैं तो बरसों पहले ही मर सा गया
मौसमों से दोस्ती करने की चाहत में
मौसम दर मौसम बदलता गया
सुलझा तो लेता हर गुत्थी मैं
पर मैं जवाबों से कुछ डरता रहा
बहता ही जा रहा है दरिया ऐ वक्त
और मैं किनारे पे बैठा इंतज़ार करता रहा
जाने वाले पीछे छोड़ गए क़दमों के निशाँ
मैं उन निशानों को यूँ ही शब्दों में गढ़ता गया
कहने सुनने से बहुत कुछ बदल सकता था
पर मेरा अंहकार उनके अंहकार से मिलकर
बेसाख्ता बढ़ता गया
कुछ देर और ठहर जाती रात तो अच्छा होता
अब उजालों से से मन कुछ भर सा गया


Sunday, February 1, 2009

गम फ़िर जवान हो गए

लम्हे समेट रहा था
जाने कब हाथ लहू-लुहान हो गए
कांच के थे मेरे अरमान
सो ख़ाक के मेहमान हो गए
देखा जब एक पुरानी डायरी के पन्नो को पलट के तो
एहसास हुआ कि हम ख़ुद से कितने अंजान हो गए
जहाँ कभी महल बनाये थे हमने सपनों के
वहां अब काबिज शमशान हो गए
जिन गलियों में गुज़ारा था बचपनउनकी बेरुखी देकर हम हैरान हो गए
शहर आज भी वैसा ही है
पर हम इसके लिए अनजान हो गए
छोड़ आये थे जिन दोस्तों को हम
आज जब उनसे मिले तो बेजुबान हो गए
वो पेड़ जिसकी पनाहों में कटती थीं शामें
आज उस जगह औरों के मकान हो गए
बीते हुए वक़्त से मिले जब हम उन राहों
पे तो सारे गम फिर जवान हो गए
सोचा था भूल जायेंगे सब कुछ पर.............

Friday, January 23, 2009

वक्त का हमसफ़र

वक्त के साथ चलता रहा हूँ मैं
खुशी के हर पल पे मचलता रहा हूँ मैं
पल पल हर कदम आगे बढूंगा मैं
किसी भी मुश्किल में न पीछे हटूंगा मैं
वक़्त के हर पहलू को मैंने समझ लिया
वक़्त को ही मैंने हमसफ़र समझ लिया

Thursday, January 22, 2009

नहुष के अंश

''क्यों रूका जब दूर तक दिखता नहीं आसार
आज तेरा आत्म तुझको खुद रहा धिक्कार
ओ ! नहुष के अंश तू क्यों शोक संतप्त ?
डबडबाई आंखों से दिखता कहां संसार "

Wednesday, January 21, 2009

अजीब है

कपड़ों के दायरे में सिमटी देह
और राशन के दायरे में खोई भूख
के साथ
धूसर रास्तों पर चलती ज़िंदगी
और उसके बाद
अर्धनग्न हो जाना
अजीब है,
अजीब है,
प्रतिक्रियावादी समाज में स्वाभाव का भूलना
पर...पायचों में भरी धूल
उसका क्या ?
विदेशी जूते एड़ियों की दरारें
मिटाते नहीं
ढक लेते हैं ।

Tuesday, January 13, 2009

हसरत नही है कोई

अब जब कि हसरत नही है कोई
जिन्दगी आसान हो गई है
किसी कि मेहरबानियों से
अब हमें भी अब लोगों की पहचान हो गई है
वक्त गुज़रा नही है बहुत अभी
पर दूर थकान हो गई है
सफर मुक्कमल भले न हुआ हो
पर रास्तों से अच्छी जान-पहचान हो गई है
मिलते हैं साथी आज भी पुरानी राहों के
बताने के लिए कि कैसे किस्मत उनपर मेहरबान हो गई है
जिन मकानों में कभी मन्दिर बसते थे
उनकी पहचान अब दुकान हो गई है
यार जो मिलते थे अफसानों की तरह
अब वो सिर्फ़ ख़्वाबों में नज़र आते हैं
दर्द-भरे अफसानों की तरह
गुमान था हमें जिनकी मोह्हबत पर दीवानों की तरह
अब वो हमसे मिलते हैं बेगानों की तरह
ये बात हम समझ नहीं पाएं हैं आज भी कि
पूजते थे जिसे हम खुदा कीतरह
बदलली है उसने फितरत अपनी इंसानों कि तरह

वक़्त और जख्म

सुना था की वक्त हर ज़ख्म भर देता है
पर न जाने क्यों मेरे ज़ख्म वक्त के साथ
और गहरे होते जा रहे हैं
भूलने की कोशिश तो बहुत की थी
भूले हुए लोग मेरी तनहाइयों के लुटेरे होते जा रहे हैं
ढूँढने लगा था मैं जिन्दगी की ज़द्दोज़हद में सुकून
पर ख़ुद से बचने के ये रास्ते भी अब अंधेरे होते जा रहे हैं
सोचता था दूरियों से धुंधली पड़ जाएँगी उनकी यादें
पर फासलों से मेरे जेहन में बसे अक्स -ऐ-यार
और सुनहरे होते जा रहे हैं
जला चुका था मै हर सबूत उनकी मोह्हबत के
पर उस आग से रोशन मेरे अंधेरे होते जा रहे हैं
अब मैं साथ नही चाहता हूँ किसी का
तो क्यों मेरे साथी ये सवेरे होते जा रहे हैं