Friday, January 23, 2009

वक्त का हमसफ़र

वक्त के साथ चलता रहा हूँ मैं
खुशी के हर पल पे मचलता रहा हूँ मैं
पल पल हर कदम आगे बढूंगा मैं
किसी भी मुश्किल में न पीछे हटूंगा मैं
वक़्त के हर पहलू को मैंने समझ लिया
वक़्त को ही मैंने हमसफ़र समझ लिया

Thursday, January 22, 2009

नहुष के अंश

''क्यों रूका जब दूर तक दिखता नहीं आसार
आज तेरा आत्म तुझको खुद रहा धिक्कार
ओ ! नहुष के अंश तू क्यों शोक संतप्त ?
डबडबाई आंखों से दिखता कहां संसार "

Wednesday, January 21, 2009

अजीब है

कपड़ों के दायरे में सिमटी देह
और राशन के दायरे में खोई भूख
के साथ
धूसर रास्तों पर चलती ज़िंदगी
और उसके बाद
अर्धनग्न हो जाना
अजीब है,
अजीब है,
प्रतिक्रियावादी समाज में स्वाभाव का भूलना
पर...पायचों में भरी धूल
उसका क्या ?
विदेशी जूते एड़ियों की दरारें
मिटाते नहीं
ढक लेते हैं ।

Tuesday, January 13, 2009

हसरत नही है कोई

अब जब कि हसरत नही है कोई
जिन्दगी आसान हो गई है
किसी कि मेहरबानियों से
अब हमें भी अब लोगों की पहचान हो गई है
वक्त गुज़रा नही है बहुत अभी
पर दूर थकान हो गई है
सफर मुक्कमल भले न हुआ हो
पर रास्तों से अच्छी जान-पहचान हो गई है
मिलते हैं साथी आज भी पुरानी राहों के
बताने के लिए कि कैसे किस्मत उनपर मेहरबान हो गई है
जिन मकानों में कभी मन्दिर बसते थे
उनकी पहचान अब दुकान हो गई है
यार जो मिलते थे अफसानों की तरह
अब वो सिर्फ़ ख़्वाबों में नज़र आते हैं
दर्द-भरे अफसानों की तरह
गुमान था हमें जिनकी मोह्हबत पर दीवानों की तरह
अब वो हमसे मिलते हैं बेगानों की तरह
ये बात हम समझ नहीं पाएं हैं आज भी कि
पूजते थे जिसे हम खुदा कीतरह
बदलली है उसने फितरत अपनी इंसानों कि तरह

वक़्त और जख्म

सुना था की वक्त हर ज़ख्म भर देता है
पर न जाने क्यों मेरे ज़ख्म वक्त के साथ
और गहरे होते जा रहे हैं
भूलने की कोशिश तो बहुत की थी
भूले हुए लोग मेरी तनहाइयों के लुटेरे होते जा रहे हैं
ढूँढने लगा था मैं जिन्दगी की ज़द्दोज़हद में सुकून
पर ख़ुद से बचने के ये रास्ते भी अब अंधेरे होते जा रहे हैं
सोचता था दूरियों से धुंधली पड़ जाएँगी उनकी यादें
पर फासलों से मेरे जेहन में बसे अक्स -ऐ-यार
और सुनहरे होते जा रहे हैं
जला चुका था मै हर सबूत उनकी मोह्हबत के
पर उस आग से रोशन मेरे अंधेरे होते जा रहे हैं
अब मैं साथ नही चाहता हूँ किसी का
तो क्यों मेरे साथी ये सवेरे होते जा रहे हैं