Thursday, February 26, 2009

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ........
तो क्या हुआ जो जिन्दगी हर कदम पर मारती है ठोकर।
हर बार फ़िर संभल कर मै उसे एक अरमान बनने निकला हूँ।
डूबता हुआ सूरज कहता है मुझसे... कल फ़िर आऊंगा।
मै उस कल के लिए आसमान बनने निकला हूँ।
इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ..........
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ........

Sunday, February 22, 2009

मुस्काने कि मोहलत नहीं मिलती

सबको सफ़र चुनने की आज़ादी नहीं मिलती
मंजिलें मिल भी जायें मगर कामयाबी नहीं मिलती
आवारा परिंदों की तरह उड़ जाता है वक़्त दूर कहीं
पर जाने क्यों हमें अपने गुज़रे हुए कल से आज़ादी नहीं मिलती
दिल की तिजोरी में बंद कर के रखे थे खुशियों के चाँद लम्हे
एक मुद्दत हुई उस तिजोरी की चाभी नहीं मिलती
बेझिझक किसी बच्चे की तरह घुस गया थ किसी गैर के घर में
क्या खबर थी की बड़ों को बच्चों सी आज़ादी नहीं मिलती
साहिलों पर बिखरी रेत से इस संसार में क़दमों के निशाँ तो बहुत मिलते हैं
पर किसी भी निशाँ को पहचान बेमियादी नहीं मिलती
कभी मौका मिला तो लिखूंगा तेरे बारे में भी
अभी तो ख़ुद से फुर्सत नहीं मिलती
मिलने को तो मिल जाती है हर चीज़ जिन्दगी में
बस जिनकी चाहत होती है वही नहीं मिलती
मिल जाती है आज भी बहुतों से नज़रें
पर हजारों में भी वो एक नज़र नहीं मिलती
इस कदर बेकरार है तेरे फ़िर आने की आस में ये दिल
कि किसी आलम भी रग्बत नहीं मिलती
नाहक ही परेशान है तू ए दिल
जबकि मालूम है तुझे
कि हर किसी को इस जहाँ में
मोह्हबत नहीं मिलती
झूठ कहा था मैंने भी- उसने भी
क्या खबर थी कि झूठ के पुलिंदों में
असलियत नहीं मिलती
आज बरसों बाद मिलकर समझा रहे हैं वो
इश्क का मतलब हमें
ज़रा पहले कह दिया होता
तो इतनी मुसीबत नहीं मिलती
जो समझते थे कि
समझते हैं सब कुछ हम
अब समझ में आया
कि दीवानों को कुछ भी समझने की
समझ नहीं मिलती
वक़्त अभी मोड़ पर ही है
सोचता हूँ वापस बुला लूँ
पर आवाज़ में अब वो पहले सी
ताक़त नहीं मिलती
याद कर के बीते लम्हों को
खुश तो हो सकता हूँ मगर
जिन्दगी की जद्दोजहद में फुर्सत नहीं मिलती
दोस्त बनने को तो आज भी तैयार हैं कई लोग
पर अब किसी से भी अपनी तबीयत नहीं मिलती
जज़्बात भी वही हैं
अल्फाज़ भी वही हैं
पर अब किसी भी जुबान में
तुझ सी मासूमियत नहीं मिलती
फिसल जाती है हाथ से जिन्दगी यूँ ही बिन बताये
वक़्त बहुत बेरहम है
इससे एक पल की भी मोहलत नहीं मिलती
कर के देख ली है बहुत जोर-आजमाइश हमने
अब रिश्तों में पड़ी सिलवटें मिटाने की हिम्मत नहीं मिलती
दोस्तों ने इस कदर साथ दिया है हर मोड़ पर कि
अब हमें दुश्मन बनाने कि जरूरत नहीं पड़ती
मुस्कराहटों के हर पल कर संजो के रख लेना यारों
जिन्दगी में बार-बार मुस्कराने की मोहलत नहीं मिलती
ज़ख्मों का हिसाब मत रखना क्योंकि
अपनों की दी हुई चीज़ों की कीमत नहीं लगती
मुश्किलें हल हल हो जाएँगी सारी
गर सच को सच मान लिया जाये पर जाने क्यों
सच को सच मान लेने की हिम्मत नहीं मिलती
देखकल गलियों में फिरते इन आवारा आशिकों को भी
जाने क्यों इन नए मजनुओं को नसीहत नहीं मिलती
चलो अब लौट चलें घर की ओर
जिन्दगी की इन वीरान गलियों में अब
सांस लेने की भी आज़ादी नहीं मिलती
जो देते हैं दुहाई यार की बेवफाई की
कभी झाँक कर देखेंगे अपने गिरेबाँ में तो जान जायेंगे
वफ़ा के बदले कभी बेवफाई नहीं मिलती

Sunday, February 15, 2009

सच्चे यार होते हैं

नदिया में बहती कश्तियों के
कई सवार होते हैं
किनारों पर पड़ी कश्तियों के
साथी बस खर-पतवार होते हैं
जो मन में दबे रहते हैं
वही असल जज्बात होते हैं
जो जुबान पर आ जायें
वो तो बस गुबार होते हैं
जिन्हें पतझड़ में बिखर जाने का डर नहीं होता
उन्ही गुलों से गुलशन गुलज़ार होते हैं
खौफ नहीं होता जिस मिटटी को
भट्टी की तपिश का
उसी के सहारे खड़े मीनार होते हैं
वो जो आपकी रुसवाइयों में भागीदार होते हैं
वही सच्चे यार होते हैं
बाकी तो बस दुनियादार होते हैं

Friday, February 13, 2009

मौत का पैगाम आया है

मुझे अपने ग़मों से
कुछ इस कदर मोह्हबत हो गई है कि
हर खुशी अब एक मुसीबत हो गई है
चाहतों के पुलिंदों को वक्त के जिस दरिया में बहा आया था
उस दरिया में आज जाने क्यों उफान आया है
बना ली थी आस पास अपने दुनिया की दीवार
जाने कहाँ से फ़िर ये यादों का तूफ़ान आया है
जाने आज क्या कहने
आंखों के रेगिस्तान में
गुज़रे हुए पलों की
बारिशों का पैगाम आया है
निकला था जो मुसाफिर मंजिल की तलाश में
लौट के घर आज शाम आया है
नहीं किया थे जिसने कभी शिकवा कोई
दोस्त वो लेकर जुबान आया है
बेफिक्र होकर सोते थे जिसके पहलु में हम
यार वो लेकर खंजर सरे आम आया है
यकीं नहीं होता है फिर भी सच है
कि जिसने सिखाया थ जीना
उसी के हाथों मौत का पैगाम आया है

Monday, February 2, 2009

रात से बातें करता रहा

मैं रात भर बैठा हुआ
रात से बातें करता रहा
वो कौन है जो साँस ले रहा है मेरी जगह
मैं तो बरसों पहले ही मर सा गया
मौसमों से दोस्ती करने की चाहत में
मौसम दर मौसम बदलता गया
सुलझा तो लेता हर गुत्थी मैं
पर मैं जवाबों से कुछ डरता रहा
बहता ही जा रहा है दरिया ऐ वक्त
और मैं किनारे पे बैठा इंतज़ार करता रहा
जाने वाले पीछे छोड़ गए क़दमों के निशाँ
मैं उन निशानों को यूँ ही शब्दों में गढ़ता गया
कहने सुनने से बहुत कुछ बदल सकता था
पर मेरा अंहकार उनके अंहकार से मिलकर
बेसाख्ता बढ़ता गया
कुछ देर और ठहर जाती रात तो अच्छा होता
अब उजालों से से मन कुछ भर सा गया


Sunday, February 1, 2009

गम फ़िर जवान हो गए

लम्हे समेट रहा था
जाने कब हाथ लहू-लुहान हो गए
कांच के थे मेरे अरमान
सो ख़ाक के मेहमान हो गए
देखा जब एक पुरानी डायरी के पन्नो को पलट के तो
एहसास हुआ कि हम ख़ुद से कितने अंजान हो गए
जहाँ कभी महल बनाये थे हमने सपनों के
वहां अब काबिज शमशान हो गए
जिन गलियों में गुज़ारा था बचपनउनकी बेरुखी देकर हम हैरान हो गए
शहर आज भी वैसा ही है
पर हम इसके लिए अनजान हो गए
छोड़ आये थे जिन दोस्तों को हम
आज जब उनसे मिले तो बेजुबान हो गए
वो पेड़ जिसकी पनाहों में कटती थीं शामें
आज उस जगह औरों के मकान हो गए
बीते हुए वक़्त से मिले जब हम उन राहों
पे तो सारे गम फिर जवान हो गए
सोचा था भूल जायेंगे सब कुछ पर.............