Friday, January 29, 2010

Tuesday, January 26, 2010

किसी के इतने पास न जा

किसी के इतने पास न जा
के दूर जाना खौफ़ बन जाये

एक कदम पीछे देखने पर
सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये

किसी को इतना अपना न बना
कि उसे खोने का डर लगा रहे

इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये
तु पल पल खुद को ही खोने लगे

किसी के इतने सपने न देख
के काली रात भी रन्गीली लगे

आन्ख खुले तो बर्दाश्त न हो
जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे

किसी को इतना प्यार न कर
के बैठे बैठे आन्ख नम हो जाये

उसे गर मिले एक दर्द
इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये

किसी के बारे मे इतना न सोच
कि सोच का मतलब ही वो बन जाये

भीड के बीच भी
लगे तन्हाई से जकडे गये

किसी को इतना याद न कर
कि जहा देखो वोही नज़र आये

राह देख देख कर कही ऐसा न हो
जिन्दगी पीछे छूट जाये

ऐसा सोच कर अकेले न रहना,
किसी के पास जाने से न डरना

न सोच अकेलेपन मे कोई गम नही,
खुद की परछाई देख बोलोगे "ये हम नही

साभार: किसी अनजान लेखक को

Sunday, January 24, 2010


क्यूँ होता है 2

मंत्री काटें खूब मलाई,अधिकारी की भी है कमाई,
फिर चपरासी की चाय पे हंगामा क्यूँ होता है.

खीझे हुए हैं सब पुलिस से, त्रस्त भी हैं सब पुलिस से,
फिर भी उनके दर पे जाना क्यूँ होता है.

पुलिस यहाँ की अत्याचारी, पुलिस ही है चोर अब,
फिर हर बस्ती मे थाना क्यूँ होता है.

शिकार भी हैं हमीं, हम मे ही हैं शिकारी,
फिर भी रिश्वत खाना और खिलाना क्यूँ होता है.

कोई यहाँ बेदाग़ नहीं, है कोई भी शाह नहीं ,
फिर भी गड़बड़ होने पर मन क्यूँ रोता है.

क्यूँ होता है

क्यूँ होता है

मन जिसको अपना माने, सबसे बढ़कर जिसको जाने,
अक्सर ही वही बेगाना क्यूँ होता है.

काली काली छायें घटायें, रिमझिम बूँदें मन को रिझाएँ,
ऐसे मे अंधड़ का आना क्यूँ होता है.

माली चुन चुन फूल लगाये, खून पसीना खूब बहाए,
जब भी देखो बही बाग़ वीराना क्यूँ होता है.

जो अपना सर्वस्व लुटाये, किसी पे अपनी जान लुटाये,
उनका छलावा उससे ही फिर क्यूँ होता है.

पूरी दुनिया को जो हंसाये, खुद को ही मजाक बनाये,
उसी का दिल चुपके चुपके क्यूँ रोता है.

रोज किसी से रिश्ता तोडू, नित उससे फिर रार मैं छेडू,
फिर अंतर्मन उसका दीवाना क्यूँ होता है.

आखिर ऐसा क्यूँ होता है
क्यूँ होता है, क्यूँ होता है, क्यूँ होता है.

Friday, January 22, 2010

सर्दियों की ज़िन्दगी

सर्दियों की ज़िन्दगी 

कूड़ा ज़लाकर हाथ सेकती ठिठुरती ज़िन्दगी,

फटी हुई गुदड़ी लपेटे कंकपाती ज़िन्दगी,

फूस की झोपड़ी मे शीत खाती ज़िन्दगी,


घने कुहरे मे रिक्शे पे ओस खाती ज़िन्दगी,


और भी है ज़िन्दगी ,


चाय के कप मे चुश्कियाँ लगाती ज़िन्दगी,


कोयले की अंगीठी पे हाथ सेकती ज़िन्दगी,


रजाई के लिहाफ मे लिपट के सोती ज़िन्दगी,


गर्म कपडे पहन के कमरे मे सिमटी ज़िन्दगी.


एक यह भी ज़िन्दगी,


ठंढी बियर की बोतल से जाम लड़ाती ज़िन्दगी,

 कार के शीशे से धुंध हटाती ज़िन्दगी,


गर्म हीटर जलाकर पार्टियाँ मनाती ज़िन्दगी,


ठंढ मे भी फ्रिज मे आइस क्यूब ज़माती ज़िन्दगी. 


कंकपाती सर्दियों मे सौ रंग दिखाती ज़िन्दगी 
जूझ कर, उम्मीद से, अलमस्त होकर जीना बताती ज़िन्दगी.

पाती ज़िन्दगी को

प्रिय ज़िन्दगी
वैसे तो मज़े मे हूँ पर मन वेदना मे है. तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ. अरे न गलत मत समझना कोई गोला शिकवा नहीं करूंगा बस कई सालो से मन मे कोई कीड़ा कुलबुला रहा है. आज सोचा की तुमसे ही पूछ लिया जाये.
तो शायद अब तुम तैयार होगे, पूछूँ मैं? मैं तुमसे पूछना चाहत हूँ की तुमने खुद को इतना बेतरतीब क्यों बनाया है? मेरा आशय तुम्हारी सुन्दरता को लेकर नहीं है मेरा आशय तुम्हारी व्यावहारिकता से है. अशल मे क्या व्यावहारिक होकर आदमी तुम्हारे साथ नहीं रह सकता. दुनिया मे हर व्यक्ति ज़िन्दगी जी रहा है, गुज़ार रहा है, काट रहा है या कहें धकेल रहा है. पर कहीं भी संतुष्टि नहीं है. कहीं भी सत्य नहीं है. ज़िन्दगी की असलियत तो मैं कई बार देख चूका हूँ सच देखना चाहता हूँ. हेर मोड़ पे अपनी एक नई अशलियत को परखता हूँ, फिर आगे बढ़ जाता हूँ.पर बड़ी तम्मना है अपने सच को देखने की. आखिर क्यों है इतना घोलमाल क्यों तुमने अपने आपको अनगिनत पन्नो मे छुपा रखा है. परत दर परत खुलती हो पहेलियाँ बुझाती हो. कहीं तुम्हे अपने उपर गाने और लेख लिखवाने का शौक तो नहीं चढ़ा है. वैसे ऐसा हो भी तो इतने दिनों बाद जब तुम्हारे बारे मे इतना  लिखा जा चुका है अब तो संतोष करो. इस दुनिया को सत्य दिखा दो.
तेज़ भागती इस दुनिया मे लोगों के चेहरे पर नित एक नई सूरत देख कर व्यथित हूँ मैं. खुद अपने आप से भी. क्यों हम सच को नहीं जी पते. क्या तुम्हे ही सच से नफ़रत है. अगर नहीं तो तुम इतना बेतरतीब क्यों हो की लोगों को रोज नए मुखौटे की ज़रुरत पड़ती है. आदमी के चेहरे पे आदमियत क्यों नहीं दिखती. वहां दिखती है तो सिर्फ मक्कारी, फरेब, झूठ, अहंकार और हंसी मुस्कराहट तो कभी कभार ही आती है उसमे भी कुटिलता. तुम क्यों ऐसी हो की लोग अपने आपको जैसे हैं उसी तरह रखें, मुखौटे की ज़रुरत न पड़े. मानता हूँ की तुम आदमी को तराशना चाहती हो पर ऐसा भी क्या तराशना की वह अपनी मौलिकता ही खो दे, आदमियत को ही भूल जाये.
ज़िन्दगी अगर हो सके तो जवाब देना. अब तक तुमने मुझे बहुत कुछ सिखाया है इतना और सिखा देना. वैसे तो दुनिया मे ज़िन्दगी पर बताने वालों की कमी नहीं पर फिर वही मुखौटे. सो अगर तुम ही मुझे बताओ तो बेहतर और हाँ सुना है की ज़िन्दगी इम्तहान लेती है. तो जो भी करना है ज़ल्दी करो, मेरे पास इतना धैर्य है नहीं कहीं रस्ते मे ही हौंसला न खो बैठूं
और हाँ हो सके तो थोडा खुद को भी सिम्पल कर लो. मेरा मतलब की लोगों से बहुत कठिन इम्तहान न लो, अब देखो न कितने इसी चक्कर मे तुम्हारा साथ छोड़ के निकाल लेते हैं. क्या तुम खुद इन्हें साथ नहीं रखना चाहते अगर हाँ तो मेरे इम्तहान के प्रश्नपत्र और कठिन तैयार करवा लो मुझसे इतनी जल्दी मुक्ति नहीं मिलनी. तो जवाब भेज देना जल्दी से, मेरा मतलब सबक सिखाओ मेरे मन की व्यथा मिटाओ.

Tuesday, January 12, 2010

Tuesday, January 5, 2010

Friday, January 1, 2010