Tuesday, February 23, 2010

Saturday, February 20, 2010

Friday, February 19, 2010

वैलेन्टाइन दिवस


सोचताहूँ कि कुछ साल पहले १४ नवेम्बर के दिन कितने खतरे मोल लेकर हम दोनों मिले थे। तब कुछ ही महीने का साथ था। जानते थे कि मिलने में खतरा है, कि संस्कृति के रक्षक कभी भी पकड़ सकते हैं और फिर जलूस भी निकाल सकते हैं किन्तु लगता था कि उनसे डरना गलत होगा और हम मिले थे। मिलकर खाना भी खाया, संस्कृति के रक्षकों से बचने को थोड़े अधिक मंहगे रेस्टॉरेन्ट में गए थे।

कोई यह भी कह सकता है कि यह करना क्या इतना ही आवश्यक था?

हमें लगता
था कि आवश्यक था।
यदि हममें उस दिन साथ खड़े होने का साहस न होता तो शायद हममें परिवार के कुछ लोगों के विरोध के सामने खड़े होने का भी साहस न होता। यदि एक बार साहस दिखा दो तो बार बार साहस दिखाने का साहस आ जाता है। यदि शुरु में ही डर जाओ तो सदा ही डरने की आदत बन जाती है।

आज उसने माँ को फोन किया था, खाना बनाना आता है बता रही थी । फिर मैंने बात की। पूछ रही थीं कि वैलेन्टाइन दिवस कैसा मन रहा है तो मैं बताया जिन्दगी के लीये भाग दौड़ कर रहा हूँ । वो हँस रही थीं और कह रही थीं आह, आज का वैलेन्टाइन दिवस ऐसा दौड़ भाग वाला ! पीछे से वह कहे जा रही थी कि नहीं, हमने मनाया, हमने मनाया और हम मना रहे हैं और मनाएँगे।

सच तो यह है कि आज का वैलेन्टाइन दिवस उन सभी पिछले वैलेन्टाइन दिवसों की पराकाष्ठा है, चरम है। उस सबसे पहले वाले का, प्रेम के पहले वर्षों में मनाए गयों का, जब पता था कि चाहे जो हो जाए विवाह करेंगे ही, लेकिन विवाह करने की स्वीकृति नही मिली, नही नही परिवार ने तो दी थी लेकिन खुदा को मंजूर न था । क्यूँ साथ नही है ये चर्चा करना अब फिजूल है । हम साथ आज भी है परन्तु अलग अलग अपना भविष्य बनाते, पढ़ते, काम करते, संघर्ष करते। अब जीवन में स्थायित्व आ रहा है। दोनों का अलग अलग अपना घर है, आज जल्दी से एक रेस्टॉरेन्ट में जाकर हड़बड़ी में खाना खाया, लिफ्ट न चलने पर नए बनती उसी मंजिल पर जहाँ देखने वाला कोई न होता था, जहाँ हम अक्शर जाया करते थे, उसी बन चुके घर की मंजिल पर हाथ पकड़ सीढ़ी चढ़कर गए, लेकिन अलग अलग, बस खवाबों में, यह सब क्या वैलेन्टाइन दिवस नहीं है? भले ही अलग अलग हो लेकिन प्रेम तो साथ आज भी है और अभी अकेले में जो खाना बनाया और कुछ अधजली मोमबत्तियों को ढूँढकर, मेज पर एक इकलौता गुलाब लगाकर अकेले ही उसके अहसास में खाना खाया यह भी वैलेन्टाइन दिवस है। मैं यह नहीं कहूँगा कि यह ही वैलेन्टाइन दिवस है, क्योंकि तब वे पहले वाले सब दिवस छोटे पड़ जाएँगे और वे सब खतरे जो हमने उठाए थे वे भी छोटे बन जाएँगे। परन्तु यह भी वैलेन्टाइन दिवस है। जैसे आज पिछले सब दिवस याद आ रहे हैं वैसे ही यह भी कभी भविष्य में याद आएगा और शायद यह भी एक मील का पत्थर कहलाए।
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Sunday, February 14, 2010

फिल्म बतकही

दो दिन पहले मैंने शाहरुख़ कहाँ कि हालिया रिलीज़ फिल्म माय नेम इज कहाँ देखी. बेशक फिल्म सफलता के झंडे गाड रही हो पर एक फिल्मकार कि नज़रों से देखने पर शाहरुख़ और कारन जौहर को सोचना चाहिए कि दर्शकों को कब तक चलताऊ भावनाओं पर आधारित फ़िल्में बेचते रहेंगे. पूरी फिल्म मे अपने अभिनय से शाहरुख़ निराश करते हैं. कहानी के नाम पर क्या कुछ है मैं समझ नहीं सका. हाँ कहते हैं न कि हर फिल्म मे कुछ न कुछ होता है तो ढूँढने पर वह कुछ आपको मिल सकता है. पर इसके लिए दर्शक इतने पैसे खर्च करे यह सही नहीं होगा. काजोल  कुछ दृश्यों मे अपनी छाप छोड़ती हैं. बाकी सब सामान्य ही है. कुछ दृश्यों मे खूबसूरत लोकेशन दिखाई देती हैं. संगीत औसत कहा जा सकता है. मैं इतना बड़ा पारखी तो नहीं पर फिल्म के लिए इन्ते पैसे खर्च करने पर निराश ज़रूर हूँ.

लम्हे

लम्हे समेट रहा था
जाने कब हाथ लहू-लुहान हो गए

कांच के थे मेरे अरमान
सो ख़ाक के मेहमान हो गए

देखा जब एक पुरानी डायरी के पन्नो को पलट के तो
एहसास हुआ कि हम ख़ुद से कितने अंजान हो गए

जहाँ कभी महल बनाये थे हमने सपनों के
वहां अब काबिज शमशान हो गए

जिन गलियों में गुज़ारा था बचपन
उनकी बेरुखी देकर हम हैरान हो गए

शहर आज भी वैसा ही है
पर हम इसके लिए अनजान हो गए

छोड़ आये थे जिन दोस्तों को हम
आज जब उनसे मिले तो बेजुबान हो गए

वो पेड़ जिसकी पनाहों में कटती थीं शामें
आज उस जगह औरों के मकान हो गए

बीते हुए वक़्त से मिले जब हम उन राहों
पे तो सारे गम फिर जवान हो गए

सोचा था भूल जायेंगे सब कुछ पर
वो पल मेरे दिल के पत्थर पर बने हुए निशान हो गए

हर्ष मिश्रा के सौजन्य से प्रकाशित

Saturday, February 13, 2010

Wednesday, February 10, 2010

Tuesday, February 9, 2010

Saturday, February 6, 2010

Wednesday, February 3, 2010

दोस्त

दोस्त हंसते हैं, दोस्त रुलाते हैं,
दोस्त झगड़ कर फिर हमें मानते हैं,
दोस्त ज़िन्दगी मे साथ निभाते हैं,
पर सबसे बढ़कर
दोस्त अपनों से बचने का पाठ पढ़ाते हैं.

ज़िन्दगी

हर दिन किताब के पन्नो की तरह नए खुलती ज़िन्दगी,
हर पल रंग बदलती ज़िन्दगी,
हर लम्हा खट्टे मीठे अहसासों की ज़िन्दगी,
हर वक्त बदलते दौर का नया पाठ पद्धति ज़िन्दगी.