Tuesday, July 29, 2008

अल्फाज़ बहुत हैं

अल्फाज़ बहुत हैं
सुनने वाला कोई नहीं
ज़ज्बात बहुत हैं समझने वाला कोई नहीं
क्या कहें किससे कहें सुनने वाला कोई नहीं
खामोश मेरी हर तन्हाई है
जाने क्यों कई रोज़ से तेरी याद नहीं आई है
एक अज़ीब सी रग्बत है दिल में आजकल
लगता है तुझे भी कई दिनों से मेरी याद आई नहीं है
तारीखें बदलती जा रही हैं
वक्त पर कुछ थम सा गया है
तू गया था जब छोड़ मुझको
वो मंज़र जेहन में कुछ जम सा गया है
लगता है फ़िर सज़ा ली हैं तूने महफिलें
मेरे घर में आज कुछ मातम सा रहा है
लगता है तुझे ये भी याद नहीं कि
कोई कभी तेरा हमदम भी रहा है

Sunday, July 27, 2008

कब बदलेगी ये फ़िज़ा

सोचता हूँ कब बदलेगी ये फ़िज़ा
और कब थमेगा
आतंक और दहशत का ये सिलसिला
क्यों है उजड़ी बस्तियाँ और
क्यों हैं वीरां गुलिस्तां
क्यों है भीगी हर माँ की आँखें
क्यों है बिलखती बहुएँ-बेटियाँ
है हर तरफ फैली एक अजब सी खामोशी
हर चेहरे पर है एक अजब सी उदासी
हर आँख में पानी है उमड़ा
फिर भी है हर नज़र प्यासी
हो रही रुसवा इंसानियत हर ओर
हैवानियत है मुस्कराती
ढूँढने पर भी नहीं मिलता
जिन्दगी का नामोनिशाँ
मौत हर जगह आसानी से मिल जाती
कोई जा के कह दे उस ऊपर वाले से कि
तेरे इस जहाँ में अब
कहीं भी तेरी सूरत नज़र नहीं आती
क्या तुझे अपने बन्दों की ये हालत नज़र नहीं आती

Thursday, July 24, 2008

मिलना मत कभी अपने आप से;
घबरा जाओगे
ढूँढने पर भी ख़ुद को
अपने आप में नहीं पाओगे
चेहरा जो तुम दुनिया को दिखाते हो
एक छलावा है
सबको तो तुम बरगला सकते हो
पर कभी ये सोचा है कि
ख़ुद से कैसे झूठ बोल पाओगे
झाँकना मत कभी तुम अपने गिरेबां में
वरना अपने आप से खुद शर्मा जाओगे
जो कहते रहे हो तुम सबसे आज तक
वही बातें ख़ुद से कहोगे तो
अपनी असलियत से वाकिफ हो जाओगे
जब कभी फ़िर मेरे बारे में सोचोगे
तो मैं तुम्हारी हर बात में -
तुम्हारे हर ख़यालात में
आज भी रहता हूँ जान जाओगे

Monday, July 21, 2008

इक खामोश समंदर देखा है

इस शोर-शराबे भरे शहर में
मैंने इक खामोश समंदर देखा है
जहाँ इंसान को इंसान की परवाह नहीं
ऐसा इक मंजर देखा है
मिलती नहीं है जिन्दगी जहाँ पर
इंसानों की उस बस्ती के अन्दर देखा है
जहाँ नहीं सुनी जाती कोई फ़रियाद
ऐसा इक मन्दिर देखा है
हर रोज़ बनते-बिगड़ते रिश्तों का
इक अजब बवंडर देखा है
अब तो याद भी नहीं क्या-क्या देखा था
पर इतना जानता हूँ
मैंने हर मोड़ पर दम तोड़ता हुआ
एक कलंदर देखा है

Sunday, July 20, 2008

तेरे सिवा कुछ रहा ही नहीं

मुद्दतें बीत गयीं तुझसे मिले हुए
और तू कभी दूर मुझसे गया भी नहीं
दूरियां बढ़ जायें अपने बीच इतनी
ऐसा तो दरमयां अपने
कुछ कभी हुआ ही नहीं
तेरे गम से भर गया है जी मेरा
फ़िर ये कैसे कह दूँ
तेरी जुदाई से हासिल मुझे कुछ हुआ नहीं
जाने कब ये ख्वाहिशों के महल यूँ ही बन गए
तुमने तो कभी पत्थर एक भी रखा नहीं
मैंने जाने क्या-क्या सुन लिया
तुमने तो शायद कभी कुछ कहा ही नहीं
भूल कैसे सकता है भला तू मुझको
जब मैं तेरी यादों में कभी रहा ही नहीं
क्या तुझे भी कभी याद आते हैं वो पल
जब चैन तुझे बिन मेरे एक लम्हा भी रहा नहीं
मैं तो तलबगार तेरा आज भी हूँ
पर सच कहना कि
क्या तू तलबगार कभी मेरा रहा ही नहीं
जाने क्यों चाँद कुछ मुरझा सा गया है
कहीं तूने मेरी तरह उससे भी कुछ कहा तो नहीं
कभी गौर से आइना देखोगी तो पाओगी
कि मेरे जाने के बाद
नूर तेरे चेहरे में भी अब पहले जैसा रहा नहीं
वक्त थोड़ा और गुज़रने दो
जान जाओगी कि प्यार मेरे जितना
कभी किसी ने तुम्हें किया ही नहीं
पैगाम तो भेजा था तुझे मैंने इन घटाओं के हाथ
पर सुना है की इस बार तेरे शहर में
मौसम का हाल कुछ अच्छा रहा नहीं
और अब कुछ कहना नहीं चाहता हूँ
बस इतना जान ले
कि तेरे जाने के बाद
मेरी जिन्दगी में
एक तेरे सिवा कुछ रहा ही नहीं

Thursday, July 17, 2008

कौन है वो

कौन है वो
जो जिन्दगी के साथ निभा के भी खुश है
कौन है वो
जो अपनों को आज़मा के भी खुश है
कौन है वो
जो अपने आप से नज़रे मिला के भी खुश है
कौन है वो
जो हर गम भुला के भी खुश है
कौन है वो
जो बीती बातों को भुला के भी खुश है
कौन है वो
जो ज़माने को अपना बना के भी खुश है
कौन है वो
जो रिश्ते बना के भी खुश है
कौन है वो
जो हर मंजिल को पा के भी खुश है
सच तो यह है कि
हैं नहीं जहाँ में कोई भी ऐसा
जो हर खुशी पा के भी खुश है

Tuesday, July 15, 2008

मुस्कराने की कोशिश कर रहा हूँ

अब मैं बहुत थक गया हूँ
हालाँकि चला नहीं हूँ बहुत मगर
फ़िर भी जाने क्यों इस मोड़ पर ठिठक गया हूँ
याद कुछ मैं करने की कोशिश कर रहा हूँ
बीती हुई कल की यादों से
आज के खालीपन को भरने की कोशिश कर रहा हूँ
शब्द जो मुरझा गए हैं
उनमे फ़िर से रंग भरने की कोशिश कर रहा हूँ
जिस आग के शोले ठंडे पड़ गए थे
वही आग फ़िर से जलाने की की कोशिश कर रहा हूँ
लड़ना तो नहीं चाहता हूँ मगर
लड़ना पड़ रहा है
क्योंकि सदियों से सोए हुए इंसानों को
जगाने की कोशिश कर रहा हूँ
नहीं बदल सकता दुनिया को न सही
खुद को तो बदल सकता हूँ
न चले कोई मेरे साथ न सही
मैं अकेला ही नए रास्ते बनाने कि कोशिश कर रहा हूँ
फ़िर से नए ख्वाब सज़ाने की कोशिश कर रहा हूँ
अब मैं फ़िर से मुस्कराने की कोशिश कर रहा हूँ





Saturday, July 12, 2008

धुंधलका बढ़ता जा रहा है

शाम झरोखे पे बैठा घर लौटते परिंदों को देख रहा था
कुछ पुराने आशियाने याद आ गए
वो गली का मोड़ ,नीम का पेड़
चाय की दुकान, खेल का मैदान
और कुछ साथी पुराने याद आ गए
जब हर सुबह हसीन
हर शाम रंगीन थी
न फिक्रे दुनिया थी
न गमे यार था
हर मौसम मौसमे-बहार था
जब हर कोई अपना था
सच लगता हर सपना था
फ़िर आज वो ज़माने याद आ गए
गुज़रती थी हर शाम यारों के साथ
कभी गली के नुक्कड़ पे
तो कभी चाय की दुकान पे
वो कॉलेज के गलियारे
जहाँ मिलते थे यार प्यारे
और बुनते थे सपने ढेर सारे
जहाँ सजाते थे हम खाबों की महफिलें
फिर वो ठिकाने याद आ गए
अब धुंधलका सा छा रहा है
जाने फिर क्या याद रहा है
गुज़र चुका है जो ज़माना
फिर से जेहन पे छा रहा है
धुंधलका बढ़ता जा रहा है
धुंधलका बढ़ता जा रहा है.....




Tuesday, July 8, 2008

हमसफ़र

हमसफ़र जो खो जाते हैं
सिर्फ़ वो ही क्यों याद आते हैं
वो ख्वाब जो बिखर जाते हैं
वो ही क्यों हर पल तड़पाते हैं
लम्हें जिन्हें हम भूलना चाहते हैं
वो क्यों हमारे हर पल में बस जाते हैं
जिन राहों को हम जाने कब छोड़ आए थे
क्यों वो रास्ते हमें बार-बार बुलाते हैं
जिन तस्वीरों को मैं जाने कब जेहन से मिटा चुका हूँ
उनके साए क्यों मुझे हर वक्त डराते हैं
जाने किसको को ढूँढतीं रहती हैं आँखें
जो चेहरे पास हैं वो नज़र क्यों नहीं आते हैं
मुलाकात तो करता हूँ मैं हर किसी से मगर
जाने क्यों लोग मुझे पसंद नहीं आते हैं
जिंदगी कुछ समझाने की कोशिश तो कर रही है मगर-
जाने क्यों इसके फलसफे मुझे समझ नहीं आते हैं

Wednesday, July 2, 2008

अंजान सफर

मैं कहाँ इन रास्तों को जानता था
कब मैं इनको अपना मानता था
फ़िर भी जाने किसके इशारे पर चल रहा हूँ
जाने क्यों अपने मन को कुचल रहा हूँ
जानता हूँ मिलेंगी मंजिलें भी और
हाँसिल होंगे मकाम भी
पर कब मैं ये सब चाहता था
है नहीं चाहत मुझे उस जहाँ की
जहाँ इंसान को है फ़िक्र नहीं इंसान की
जहाँ हर चेहरे पे मुस्कान तो है पर नाम की
जहाँ हर कोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है
कामयाबी के सफर में दोस्ती और रिश्तों को कुचलने को
जिंदगी का फलसफा मानता है
जहाँ आंखों में प्यार नहीं सिर्फ़ सपने हैं
जहाँ हर लम्हा एक नई जंग है
जहाँ दिल बनारस की गलियों से भी ज्यादा तंग हैं
जहाँ जिंदगी ख्वाहिशों के जंगल में कैद है
जहाँ हर मोड़ पे ग़मों की एक नई पौध है
जहाँ हर खुशी नीलाम होती है
ढूंढते-ढूंढते थक गया हूँ
पर मिलती नहीं कोई ऐसी डगर
जहाँ इंसानियत नहीं गुमनाम होती है