Sunday, November 16, 2008

चाँद पर तिरंगा

सवेरे सवेरे
चाय वाली दुकानपर
किसी ने बताया,
"चाँद पर पहुँचा तिरंगा"
मैंने देखा,
बगल मे खड़ा था एक बालक
भूखा और नंगा
किसी ने बताया,
भारतीय अर्थव्यवस्था ने
मंदी के इस दौर मे भी
apni धाक जमाई
दूर खड़े मजदूर का चेहरा बता रहा था
देश मे कितनी बढ़ गई है महंगाई
अख़बार का कोई पन्ना,
अफगानिस्तान मे बुनियादी संरचना में,
भारत के योगदान को बता रहा था
सामने की मुख्य सड़क पर भरा गन्दा पानी
इस उपलब्धि को मुंह चिढा रहा था
देश मे लगातार अरबपति बढ़ते जा रहे हैं
पर दिनों दिन विदर्भ व बुंदेलखंड में
किसान भूख से मरते जा रहे हैं
हम सूचना प्रौद्योगिकी मे कितना आगे बढ़ गए
पर पदोश मे घटी घटना से अपरिचित रह गए
हम नाभिकीय उर्जा के लिए ज़ोर लगा रहे हैं
पर अपने पन बिजली केन्द्रों को ही सही नही कर पा रहे हैं ........
.....................????????????????????????

Saturday, November 15, 2008

अजनबी रिश्ते

काश
हम फ़िर से बन जाते अजनबी
वो अजनबी
जो अनजान थे एक दूजे से
जान पहचान के बाद भी।
वो अजनबी जो भटका करते थे घंटों
एक दूजे से मिलने को ,जानने को।
कितना अनूठा था,
वो अजनबी रिश्ता
जब हम जानते थे बस दूसरे के सदगुणोंको ,
वो रिश्ता ,
जिसमे हम एक दूजे की खूबियों को
अतुलनीय समझा करते थे
कितने हसीं थे वो अजनबी लम्हें
जब हम घंटों बिता देते थे,एक दूजे को सुनने में
जब दिन निकल जाते थे,एक दूजे की हौंसला अफजाई मे

फ़िर
बढीं नजदीकियां हमारे बीच
एक दूजे को खूब जांचा परखा हमने
और फ़िर इस जांच परख मे ही रिश्तों मे प्रगाढ़ता बढ़ी
और फ़िर उफ़
क्या हुआ ऐसा कि
हम सिर्फ़ एक दूजे को परखने मे लग गए
एक दूजे को इतना पहचान लिया हमने
कि
खूबियों से अधिक कमियां दिखने लगीं दूजे कि
हम जुट गए गलतियाँ खोजने मे,दूसरे की
ताकि
कोस सकें एक दूजे को हम
और
वक्त गुजार सकें
और अब जब की हम दोनो को ही
अहसास है इन बेहद नजदीकी दूरियों का
तलाशना है हमें फ़िर से एक अटूट रिश्ता
लगता है अब हमें
कितने अच्छे थे वो अजनबी रिश्ते
काश
हम बना पायें अपने बीच
फ़िर वही अजनबी रिश्ते
ला पते फ़िर वो लम्हें,
खोज पातेफ़िर वही कौतूहल
फ़िर वही तत्परता , वही उमंग
बन पते फ़िर वही अजनबी।

उनकी नफरत

जरूरत नहीं मुझे किसी के साथ की
हसरत हूँ मैं ख़ुद सारी कायनात की
दूर जाकर मुझसे वो समझते हैं कि
मिट गया हूँ मैं
गर महसूस कर के देखेंगे तो जान जायेंगे कि
आज भी उनकी साँसों के सिवा कहीं नहीं गया हूँ मैं
आज भी वो आईने पे
अपनी साँसों की स्याही से
नाम मेरा लिखते हैं
कहते नहीं हैं मुझसे पर
शाम के सूरज के हाथों मुझे अपनी
आंखों का हाल लिखते हैं
हर आते जाते मुसाफिर में
चेहरा मेरा ढूंढते हैं
ठान रखी है मुझसे फ़िर न मिलने कि
पर वो ठिकाने मुझसे मिलने के हर जगह ढूंढते है
जाने कब ये मानेंगे कि
वो आज भी मुझमे अपने
आने वाले कल को ढूंढते हैं