Saturday, October 31, 2009
Wednesday, October 28, 2009
प्रश्नचिन्ह
हर प्रश्नचिन्ह तलाशता है
एक सटीक उत्तर
तभी पूर्णता को प्राप्त करता है
जब उसका अस्तित्व
उत्तर से संतृप्त हो जाता है,
प्रश्नचिन्ह प्रतीक हैं-
अन्धकार के अज्ञान के
क्योंकि ज्ञान प्राप्त होते ही
हटा लिए जाते हैं , वाक्य के अंत से,
कभी कभी प्रश्नचिन्ह बन जाते हैं,
एक अबूझ पहेली
जितना ही सुल्झाओगे
उलझते धागों की तरह
बना देते हैं जीवन बेतरतीब
जंगल में उगी वनस्पतियों की तरह
प्रश्नचिन्ह अकारण आते हैं जीवन मे
और बदल देते हैं सोचने के तरीके
डाल देते हैं भूचाल मन के अंदर
उद्विग्न मन दौड़ पड़ता है
इनका समाधान खोजने
और ज्यों ही मिलता है उत्तर
कुलबुलाकर नया प्रश्नचिन्ह
खड़ा हो जाता है , उत्तर की अपेक्षा मे
और जिंदगियां बीतती जाती हैं
इन प्रश्नचिन्हों के उत्तर की तलाश मे।
एक सटीक उत्तर
तभी पूर्णता को प्राप्त करता है
जब उसका अस्तित्व
उत्तर से संतृप्त हो जाता है,
प्रश्नचिन्ह प्रतीक हैं-
अन्धकार के अज्ञान के
क्योंकि ज्ञान प्राप्त होते ही
हटा लिए जाते हैं , वाक्य के अंत से,
कभी कभी प्रश्नचिन्ह बन जाते हैं,
एक अबूझ पहेली
जितना ही सुल्झाओगे
उलझते धागों की तरह
बना देते हैं जीवन बेतरतीब
जंगल में उगी वनस्पतियों की तरह
प्रश्नचिन्ह अकारण आते हैं जीवन मे
और बदल देते हैं सोचने के तरीके
डाल देते हैं भूचाल मन के अंदर
उद्विग्न मन दौड़ पड़ता है
इनका समाधान खोजने
और ज्यों ही मिलता है उत्तर
कुलबुलाकर नया प्रश्नचिन्ह
खड़ा हो जाता है , उत्तर की अपेक्षा मे
और जिंदगियां बीतती जाती हैं
इन प्रश्नचिन्हों के उत्तर की तलाश मे।
साभार: बी डी पाण्डेय
Wednesday, October 21, 2009
Monday, October 19, 2009
पाकिस्तान को एक हिन्दुस्तानी शायर की हिदायत
पाकिस्तान के लोगों में पाकिस्तान की हकूमत और पाकिस्तानी मीडिया के ज़रिए ये बात फैलाई जाती है कि हिन्दुस्तान में जो मुसलमान हैं उन्हें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...उनपर ग़मों के पहाड़ ढाए जाते हैं...इस बात को मद्देनज़र रखते हुए एक हिन्दुस्तानी शायर ने पाकिस्तान की मीडिया, पाकिस्तान की हुकूमत और पाकिस्तान की आवाम को मुखातिब करते हुए ये नज़्म कही... जो आपकी पेश-ए-खिदमत है !
तुमने कश्मीर के जलते हुए घर देखे हैं
नैज़ा-ए-हिंद पे लटके हुए सर देखे हैं
अपने घर का तु्म्हें माहौल दिखाई न दिया
अपने कूचों का तुम्हें शोर सुनाई न दिया
अपनी बस्ती की तबाही नहीं देखी तुमने
उन फिज़ाओं की सियाही नहीं देखी तुमने
मस्जिदों में भी जहां क़त्ल किए जाते हैं
भाइयों के भी जहां खून पिए जाते हैं
लूट लेता है जहां भाई बहन की इस्मत
और पामाल जहां होती है मां की अज़मत
एक मुद्दत से मुहाजिर का लहू बहता है
अब भी सड़कों पे मुसाफिर का लहू बहता है
कौन कहता है मुसलमानों के ग़मख़्वार हो तुम
दुश्मन-ए-अम्न हो इस्लाम के ग़द्दार दो तुम
तुमको कश्मीर के मज़लूमों से हमदर्दी नहीं
किसी बेवा किसी मासूम से हमदर्दी नहीं
तुममें हमदर्दी का जज़्बा जो ज़रा भी होता
तो करांची में कोई जिस्म न ज़ख्मी होता
लाश के ढ़ेर पे बुनियाद-ए-हुकूमत न रखो
अब भी वक्त है नापाक इरादों से बचो
मशवरा ये है के पहले वहीं इमदाद करो
और करांची के गली कूचों को आबाद करो
जब वहां प्यार के सूरज का उजाला हो जाए
और हर शख्स तुम्हें चाहने वाला हो जाए
फिर तुम्हें हक़ है किसी पर भी इनायत करना
फिर तुम्हें हक़ है किसी से भी मुहब्बत करना
अपनी धरती पे अगर ज़ुल्मों सितम कम न किया
तुमने घरती पे जो हम सबको पुरनम न किया
चैन से तुम तो कभी भी नहीं सो पाओगे
अपनी भड़काई हुई आग में जल जाओगे
वक्त एक रोज़ तुम्हारा भी सुकूं लूटेगा
सर पे तुम लोगों के भी क़हर-ए-खुदा टूटेगा..
जय हिन्द
- मसरूर अहमद
तुमने कश्मीर के जलते हुए घर देखे हैं
नैज़ा-ए-हिंद पे लटके हुए सर देखे हैं
अपने घर का तु्म्हें माहौल दिखाई न दिया
अपने कूचों का तुम्हें शोर सुनाई न दिया
अपनी बस्ती की तबाही नहीं देखी तुमने
उन फिज़ाओं की सियाही नहीं देखी तुमने
मस्जिदों में भी जहां क़त्ल किए जाते हैं
भाइयों के भी जहां खून पिए जाते हैं
लूट लेता है जहां भाई बहन की इस्मत
और पामाल जहां होती है मां की अज़मत
एक मुद्दत से मुहाजिर का लहू बहता है
अब भी सड़कों पे मुसाफिर का लहू बहता है
कौन कहता है मुसलमानों के ग़मख़्वार हो तुम
दुश्मन-ए-अम्न हो इस्लाम के ग़द्दार दो तुम
तुमको कश्मीर के मज़लूमों से हमदर्दी नहीं
किसी बेवा किसी मासूम से हमदर्दी नहीं
तुममें हमदर्दी का जज़्बा जो ज़रा भी होता
तो करांची में कोई जिस्म न ज़ख्मी होता
लाश के ढ़ेर पे बुनियाद-ए-हुकूमत न रखो
अब भी वक्त है नापाक इरादों से बचो
मशवरा ये है के पहले वहीं इमदाद करो
और करांची के गली कूचों को आबाद करो
जब वहां प्यार के सूरज का उजाला हो जाए
और हर शख्स तुम्हें चाहने वाला हो जाए
फिर तुम्हें हक़ है किसी पर भी इनायत करना
फिर तुम्हें हक़ है किसी से भी मुहब्बत करना
अपनी धरती पे अगर ज़ुल्मों सितम कम न किया
तुमने घरती पे जो हम सबको पुरनम न किया
चैन से तुम तो कभी भी नहीं सो पाओगे
अपनी भड़काई हुई आग में जल जाओगे
वक्त एक रोज़ तुम्हारा भी सुकूं लूटेगा
सर पे तुम लोगों के भी क़हर-ए-खुदा टूटेगा..
जय हिन्द
- मसरूर अहमद
Thursday, October 15, 2009
शहर लखनऊ
लखनऊ मेरे शहर, मेरे शहर,मेरे शहर,
तेरी मुमताज़ रौनकें, निहार लूँ तो चलूँ,
शीश-ऐ-हर्फ़ में तुझको, उतार लूँ तो चलूँ,
चंद लम्हे सुकून से गुजार लूँ तो चलूँ,
ऐ मुहब्बत तुझे पुकार लूँ तो चलूँ।
* किसी शायर की कलम से
तेरी मुमताज़ रौनकें, निहार लूँ तो चलूँ,
शीश-ऐ-हर्फ़ में तुझको, उतार लूँ तो चलूँ,
चंद लम्हे सुकून से गुजार लूँ तो चलूँ,
ऐ मुहब्बत तुझे पुकार लूँ तो चलूँ।
* किसी शायर की कलम से
Monday, October 12, 2009
Sunday, October 11, 2009
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