लम्हे समेट रहा था
जाने कब हाथ लहू-लुहान हो गए
कांच के थे मेरे अरमान
सो ख़ाक के मेहमान हो गए
देखा जब एक पुरानी डायरी के पन्नो को पलट के तो
एहसास हुआ कि हम ख़ुद से कितने अंजान हो गए
जहाँ कभी महल बनाये थे हमने सपनों के
वहां अब काबिज शमशान हो गए
जिन गलियों में गुज़ारा था बचपन
उनकी बेरुखी देकर हम हैरान हो गए
शहर आज भी वैसा ही है
पर हम इसके लिए अनजान हो गए
छोड़ आये थे जिन दोस्तों को हम
आज जब उनसे मिले तो बेजुबान हो गए
वो पेड़ जिसकी पनाहों में कटती थीं शामें
आज उस जगह औरों के मकान हो गए
बीते हुए वक़्त से मिले जब हम उन राहों
पे तो सारे गम फिर जवान हो गए
सोचा था भूल जायेंगे सब कुछ पर
वो पल मेरे दिल के पत्थर पर बने हुए निशान हो गए
हर्ष मिश्रा के सौजन्य से प्रकाशित
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