Monday, February 2, 2009

रात से बातें करता रहा

मैं रात भर बैठा हुआ
रात से बातें करता रहा
वो कौन है जो साँस ले रहा है मेरी जगह
मैं तो बरसों पहले ही मर सा गया
मौसमों से दोस्ती करने की चाहत में
मौसम दर मौसम बदलता गया
सुलझा तो लेता हर गुत्थी मैं
पर मैं जवाबों से कुछ डरता रहा
बहता ही जा रहा है दरिया ऐ वक्त
और मैं किनारे पे बैठा इंतज़ार करता रहा
जाने वाले पीछे छोड़ गए क़दमों के निशाँ
मैं उन निशानों को यूँ ही शब्दों में गढ़ता गया
कहने सुनने से बहुत कुछ बदल सकता था
पर मेरा अंहकार उनके अंहकार से मिलकर
बेसाख्ता बढ़ता गया
कुछ देर और ठहर जाती रात तो अच्छा होता
अब उजालों से से मन कुछ भर सा गया


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