मैं रात भर बैठा हुआ
रात से बातें करता रहा
वो कौन है जो साँस ले रहा है मेरी जगह
मैं तो बरसों पहले ही मर सा गया
मौसमों से दोस्ती करने की चाहत में
मौसम दर मौसम बदलता गया
सुलझा तो लेता हर गुत्थी मैं
पर मैं जवाबों से कुछ डरता रहा
बहता ही जा रहा है दरिया ऐ वक्त
और मैं किनारे पे बैठा इंतज़ार करता रहा
जाने वाले पीछे छोड़ गए क़दमों के निशाँ
मैं उन निशानों को यूँ ही शब्दों में गढ़ता गया
कहने सुनने से बहुत कुछ बदल सकता था
पर मेरा अंहकार उनके अंहकार से मिलकर
बेसाख्ता बढ़ता गया
कुछ देर और ठहर जाती रात तो अच्छा होता
अब उजालों से से मन कुछ भर सा गया
Monday, February 2, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment