Thursday, March 26, 2009

बेकार ही शिकवा करते रहते हैं

वक्त बेवक्त वक्त से लड़ते रहते हैं

जाने किन खाबों के समंदर में डूबते उतरते रहते हैं

डर नहीं लगता था पहले किसी शै से मगर

अब हम अपने साए को देखकर भी सिहरते रहते हैं

कुछ संजों कर रख लिए थे किताबों में फूल हमने

अब उन्हीं फूलों से बातें करते रहते हैं

बीत रहा है सब कुछ एक वो ही नहीं बीतता

और फ़िर सिर्फ़ गमें इश्क हो तो सह भी लें

यहाँ तो गमें दुनिया ने भी जीना दुश्वार कर रखा है

कैसे समझाएँ अपने आपको कि

लिख गई है तकदीर अपनी ख़ाक से

हम बेकार ही शिकवा करते रहते हैं

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