Tuesday, April 27, 2010
Sunday, April 18, 2010
Thursday, April 8, 2010
Saturday, March 27, 2010
Wednesday, March 24, 2010
Thursday, March 18, 2010
Sunday, March 14, 2010
Monday, March 8, 2010
Saturday, March 6, 2010
Thursday, March 4, 2010
Tuesday, March 2, 2010
Monday, March 1, 2010
Tuesday, February 23, 2010
Saturday, February 20, 2010
Friday, February 19, 2010
वैलेन्टाइन दिवस
सोचताहूँ कि कुछ साल पहले १४ नवेम्बर के दिन कितने खतरे मोल लेकर हम दोनों मिले थे। तब कुछ ही महीने का साथ था। जानते थे कि मिलने में खतरा है, कि संस्कृति के रक्षक कभी भी पकड़ सकते हैं और फिर जलूस भी निकाल सकते हैं किन्तु लगता था कि उनसे डरना गलत होगा और हम मिले थे। मिलकर खाना भी खाया, संस्कृति के रक्षकों से बचने को थोड़े अधिक मंहगे रेस्टॉरेन्ट में गए थे।
कोई यह भी कह सकता है कि यह करना क्या इतना ही आवश्यक था?
हमें लगता था कि आवश्यक था।
यदि हममें उस दिन साथ खड़े होने का साहस न होता तो शायद हममें परिवार के कुछ लोगों के विरोध के सामने खड़े होने का भी साहस न होता। यदि एक बार साहस दिखा दो तो बार बार साहस दिखाने का साहस आ जाता है। यदि शुरु में ही डर जाओ तो सदा ही डरने की आदत बन जाती है।
आज उसने माँ को फोन किया था, खाना बनाना आता है बता रही थी । फिर मैंने बात की। पूछ रही थीं कि वैलेन्टाइन दिवस कैसा मन रहा है तो मैं बताया जिन्दगी के लीये भाग दौड़ कर रहा हूँ । वो हँस रही थीं और कह रही थीं आह, आज का वैलेन्टाइन दिवस ऐसा दौड़ भाग वाला ! पीछे से वह कहे जा रही थी कि नहीं, हमने मनाया, हमने मनाया और हम मना रहे हैं और मनाएँगे।
सच तो यह है कि आज का वैलेन्टाइन दिवस उन सभी पिछले वैलेन्टाइन दिवसों की पराकाष्ठा है, चरम है। उस सबसे पहले वाले का, प्रेम के पहले वर्षों में मनाए गयों का, जब पता था कि चाहे जो हो जाए विवाह करेंगे ही, लेकिन विवाह करने की स्वीकृति नही मिली, नही नही परिवार ने तो दी थी लेकिन खुदा को मंजूर न था । क्यूँ साथ नही है ये चर्चा करना अब फिजूल है । हम साथ आज भी है परन्तु अलग अलग अपना भविष्य बनाते, पढ़ते, काम करते, संघर्ष करते। अब जीवन में स्थायित्व आ रहा है। दोनों का अलग अलग अपना घर है, आज जल्दी से एक रेस्टॉरेन्ट में जाकर हड़बड़ी में खाना खाया, लिफ्ट न चलने पर नए बनती उसी मंजिल पर जहाँ देखने वाला कोई न होता था, जहाँ हम अक्शर जाया करते थे, उसी बन चुके घर की मंजिल पर हाथ पकड़ सीढ़ी चढ़कर गए, लेकिन अलग अलग, बस खवाबों में, यह सब क्या वैलेन्टाइन दिवस नहीं है? भले ही अलग अलग हो लेकिन प्रेम तो साथ आज भी है और अभी अकेले में जो खाना बनाया और कुछ अधजली मोमबत्तियों को ढूँढकर, मेज पर एक इकलौता गुलाब लगाकर अकेले ही उसके अहसास में खाना खाया यह भी वैलेन्टाइन दिवस है। मैं यह नहीं कहूँगा कि यह ही वैलेन्टाइन दिवस है, क्योंकि तब वे पहले वाले सब दिवस छोटे पड़ जाएँगे और वे सब खतरे जो हमने उठाए थे वे भी छोटे बन जाएँगे। परन्तु यह भी वैलेन्टाइन दिवस है। जैसे आज पिछले सब दिवस याद आ रहे हैं वैसे ही यह भी कभी भविष्य में याद आएगा और शायद यह भी एक मील का पत्थर कहलाए।
http://riteshchaudhary22.blogspot.com/
Sunday, February 14, 2010
फिल्म बतकही
दो दिन पहले मैंने शाहरुख़ कहाँ कि हालिया रिलीज़ फिल्म माय नेम इज कहाँ देखी. बेशक फिल्म सफलता के झंडे गाड रही हो पर एक फिल्मकार कि नज़रों से देखने पर शाहरुख़ और कारन जौहर को सोचना चाहिए कि दर्शकों को कब तक चलताऊ भावनाओं पर आधारित फ़िल्में बेचते रहेंगे. पूरी फिल्म मे अपने अभिनय से शाहरुख़ निराश करते हैं. कहानी के नाम पर क्या कुछ है मैं समझ नहीं सका. हाँ कहते हैं न कि हर फिल्म मे कुछ न कुछ होता है तो ढूँढने पर वह कुछ आपको मिल सकता है. पर इसके लिए दर्शक इतने पैसे खर्च करे यह सही नहीं होगा. काजोल कुछ दृश्यों मे अपनी छाप छोड़ती हैं. बाकी सब सामान्य ही है. कुछ दृश्यों मे खूबसूरत लोकेशन दिखाई देती हैं. संगीत औसत कहा जा सकता है. मैं इतना बड़ा पारखी तो नहीं पर फिल्म के लिए इन्ते पैसे खर्च करने पर निराश ज़रूर हूँ.
लम्हे
लम्हे समेट रहा था
जाने कब हाथ लहू-लुहान हो गए
कांच के थे मेरे अरमान
सो ख़ाक के मेहमान हो गए
देखा जब एक पुरानी डायरी के पन्नो को पलट के तो
एहसास हुआ कि हम ख़ुद से कितने अंजान हो गए
जहाँ कभी महल बनाये थे हमने सपनों के
वहां अब काबिज शमशान हो गए
जिन गलियों में गुज़ारा था बचपन
उनकी बेरुखी देकर हम हैरान हो गए
शहर आज भी वैसा ही है
पर हम इसके लिए अनजान हो गए
छोड़ आये थे जिन दोस्तों को हम
आज जब उनसे मिले तो बेजुबान हो गए
वो पेड़ जिसकी पनाहों में कटती थीं शामें
आज उस जगह औरों के मकान हो गए
बीते हुए वक़्त से मिले जब हम उन राहों
पे तो सारे गम फिर जवान हो गए
सोचा था भूल जायेंगे सब कुछ पर
वो पल मेरे दिल के पत्थर पर बने हुए निशान हो गए
हर्ष मिश्रा के सौजन्य से प्रकाशित
जाने कब हाथ लहू-लुहान हो गए
कांच के थे मेरे अरमान
सो ख़ाक के मेहमान हो गए
देखा जब एक पुरानी डायरी के पन्नो को पलट के तो
एहसास हुआ कि हम ख़ुद से कितने अंजान हो गए
जहाँ कभी महल बनाये थे हमने सपनों के
वहां अब काबिज शमशान हो गए
जिन गलियों में गुज़ारा था बचपन
उनकी बेरुखी देकर हम हैरान हो गए
शहर आज भी वैसा ही है
पर हम इसके लिए अनजान हो गए
छोड़ आये थे जिन दोस्तों को हम
आज जब उनसे मिले तो बेजुबान हो गए
वो पेड़ जिसकी पनाहों में कटती थीं शामें
आज उस जगह औरों के मकान हो गए
बीते हुए वक़्त से मिले जब हम उन राहों
पे तो सारे गम फिर जवान हो गए
सोचा था भूल जायेंगे सब कुछ पर
वो पल मेरे दिल के पत्थर पर बने हुए निशान हो गए
हर्ष मिश्रा के सौजन्य से प्रकाशित
Saturday, February 13, 2010
Wednesday, February 10, 2010
Tuesday, February 9, 2010
Saturday, February 6, 2010
Wednesday, February 3, 2010
दोस्त
दोस्त हंसते हैं, दोस्त रुलाते हैं,
दोस्त झगड़ कर फिर हमें मानते हैं,
दोस्त ज़िन्दगी मे साथ निभाते हैं,
पर सबसे बढ़कर
दोस्त अपनों से बचने का पाठ पढ़ाते हैं.
दोस्त झगड़ कर फिर हमें मानते हैं,
दोस्त ज़िन्दगी मे साथ निभाते हैं,
पर सबसे बढ़कर
दोस्त अपनों से बचने का पाठ पढ़ाते हैं.
ज़िन्दगी
हर दिन किताब के पन्नो की तरह नए खुलती ज़िन्दगी,
हर पल रंग बदलती ज़िन्दगी,
हर लम्हा खट्टे मीठे अहसासों की ज़िन्दगी,
हर वक्त बदलते दौर का नया पाठ पद्धति ज़िन्दगी.
हर पल रंग बदलती ज़िन्दगी,
हर लम्हा खट्टे मीठे अहसासों की ज़िन्दगी,
हर वक्त बदलते दौर का नया पाठ पद्धति ज़िन्दगी.
Friday, January 29, 2010
Tuesday, January 26, 2010
किसी के इतने पास न जा
किसी के इतने पास न जा
के दूर जाना खौफ़ बन जाये
एक कदम पीछे देखने पर
सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये
किसी को इतना अपना न बना
कि उसे खोने का डर लगा रहे
इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये
तु पल पल खुद को ही खोने लगे
किसी के इतने सपने न देख
के काली रात भी रन्गीली लगे
आन्ख खुले तो बर्दाश्त न हो
जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे
किसी को इतना प्यार न कर
के बैठे बैठे आन्ख नम हो जाये
उसे गर मिले एक दर्द
इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये
किसी के बारे मे इतना न सोच
कि सोच का मतलब ही वो बन जाये
भीड के बीच भी
लगे तन्हाई से जकडे गये
किसी को इतना याद न कर
कि जहा देखो वोही नज़र आये
राह देख देख कर कही ऐसा न हो
जिन्दगी पीछे छूट जाये
ऐसा सोच कर अकेले न रहना,
किसी के पास जाने से न डरना
न सोच अकेलेपन मे कोई गम नही,
खुद की परछाई देख बोलोगे "ये हम नही
साभार: किसी अनजान लेखक को
के दूर जाना खौफ़ बन जाये
एक कदम पीछे देखने पर
सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये
किसी को इतना अपना न बना
कि उसे खोने का डर लगा रहे
इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये
तु पल पल खुद को ही खोने लगे
किसी के इतने सपने न देख
के काली रात भी रन्गीली लगे
आन्ख खुले तो बर्दाश्त न हो
जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे
किसी को इतना प्यार न कर
के बैठे बैठे आन्ख नम हो जाये
उसे गर मिले एक दर्द
इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये
किसी के बारे मे इतना न सोच
कि सोच का मतलब ही वो बन जाये
भीड के बीच भी
लगे तन्हाई से जकडे गये
किसी को इतना याद न कर
कि जहा देखो वोही नज़र आये
राह देख देख कर कही ऐसा न हो
जिन्दगी पीछे छूट जाये
ऐसा सोच कर अकेले न रहना,
किसी के पास जाने से न डरना
न सोच अकेलेपन मे कोई गम नही,
खुद की परछाई देख बोलोगे "ये हम नही
साभार: किसी अनजान लेखक को
Sunday, January 24, 2010
क्यूँ होता है 2
मंत्री काटें खूब मलाई,अधिकारी की भी है कमाई,
फिर चपरासी की चाय पे हंगामा क्यूँ होता है.
खीझे हुए हैं सब पुलिस से, त्रस्त भी हैं सब पुलिस से,
फिर भी उनके दर पे जाना क्यूँ होता है.
पुलिस यहाँ की अत्याचारी, पुलिस ही है चोर अब,
फिर हर बस्ती मे थाना क्यूँ होता है.
शिकार भी हैं हमीं, हम मे ही हैं शिकारी,
फिर भी रिश्वत खाना और खिलाना क्यूँ होता है.
कोई यहाँ बेदाग़ नहीं, है कोई भी शाह नहीं ,
फिर भी गड़बड़ होने पर मन क्यूँ रोता है.
फिर चपरासी की चाय पे हंगामा क्यूँ होता है.
खीझे हुए हैं सब पुलिस से, त्रस्त भी हैं सब पुलिस से,
फिर भी उनके दर पे जाना क्यूँ होता है.
पुलिस यहाँ की अत्याचारी, पुलिस ही है चोर अब,
फिर हर बस्ती मे थाना क्यूँ होता है.
शिकार भी हैं हमीं, हम मे ही हैं शिकारी,
फिर भी रिश्वत खाना और खिलाना क्यूँ होता है.
कोई यहाँ बेदाग़ नहीं, है कोई भी शाह नहीं ,
फिर भी गड़बड़ होने पर मन क्यूँ रोता है.
क्यूँ होता है
क्यूँ होता है
मन जिसको अपना माने, सबसे बढ़कर जिसको जाने,
अक्सर ही वही बेगाना क्यूँ होता है.
काली काली छायें घटायें, रिमझिम बूँदें मन को रिझाएँ,
ऐसे मे अंधड़ का आना क्यूँ होता है.
माली चुन चुन फूल लगाये, खून पसीना खूब बहाए,
जब भी देखो बही बाग़ वीराना क्यूँ होता है.
जो अपना सर्वस्व लुटाये, किसी पे अपनी जान लुटाये,
उनका छलावा उससे ही फिर क्यूँ होता है.
पूरी दुनिया को जो हंसाये, खुद को ही मजाक बनाये,
उसी का दिल चुपके चुपके क्यूँ रोता है.
रोज किसी से रिश्ता तोडू, नित उससे फिर रार मैं छेडू,
फिर अंतर्मन उसका दीवाना क्यूँ होता है.
आखिर ऐसा क्यूँ होता है
क्यूँ होता है, क्यूँ होता है, क्यूँ होता है.
मन जिसको अपना माने, सबसे बढ़कर जिसको जाने,
अक्सर ही वही बेगाना क्यूँ होता है.
काली काली छायें घटायें, रिमझिम बूँदें मन को रिझाएँ,
ऐसे मे अंधड़ का आना क्यूँ होता है.
माली चुन चुन फूल लगाये, खून पसीना खूब बहाए,
जब भी देखो बही बाग़ वीराना क्यूँ होता है.
जो अपना सर्वस्व लुटाये, किसी पे अपनी जान लुटाये,
उनका छलावा उससे ही फिर क्यूँ होता है.
पूरी दुनिया को जो हंसाये, खुद को ही मजाक बनाये,
उसी का दिल चुपके चुपके क्यूँ रोता है.
रोज किसी से रिश्ता तोडू, नित उससे फिर रार मैं छेडू,
फिर अंतर्मन उसका दीवाना क्यूँ होता है.
आखिर ऐसा क्यूँ होता है
क्यूँ होता है, क्यूँ होता है, क्यूँ होता है.
Friday, January 22, 2010
सर्दियों की ज़िन्दगी
सर्दियों की ज़िन्दगी
कूड़ा ज़लाकर हाथ सेकती ठिठुरती ज़िन्दगी,
फटी हुई गुदड़ी लपेटे कंकपाती ज़िन्दगी,
फूस की झोपड़ी मे शीत खाती ज़िन्दगी,
घने कुहरे मे रिक्शे पे ओस खाती ज़िन्दगी,
और भी है ज़िन्दगी ,
चाय के कप मे चुश्कियाँ लगाती ज़िन्दगी,
कोयले की अंगीठी पे हाथ सेकती ज़िन्दगी,
रजाई के लिहाफ मे लिपट के सोती ज़िन्दगी,
गर्म कपडे पहन के कमरे मे सिमटी ज़िन्दगी.
एक यह भी ज़िन्दगी,
ठंढी बियर की बोतल से जाम लड़ाती ज़िन्दगी,
कार के शीशे से धुंध हटाती ज़िन्दगी,
गर्म हीटर जलाकर पार्टियाँ मनाती ज़िन्दगी,
ठंढ मे भी फ्रिज मे आइस क्यूब ज़माती ज़िन्दगी.
कंकपाती सर्दियों मे सौ रंग दिखाती ज़िन्दगी
जूझ कर, उम्मीद से, अलमस्त होकर जीना बताती ज़िन्दगी.
कूड़ा ज़लाकर हाथ सेकती ठिठुरती ज़िन्दगी,
फटी हुई गुदड़ी लपेटे कंकपाती ज़िन्दगी,
फूस की झोपड़ी मे शीत खाती ज़िन्दगी,
घने कुहरे मे रिक्शे पे ओस खाती ज़िन्दगी,
और भी है ज़िन्दगी ,
चाय के कप मे चुश्कियाँ लगाती ज़िन्दगी,
कोयले की अंगीठी पे हाथ सेकती ज़िन्दगी,
रजाई के लिहाफ मे लिपट के सोती ज़िन्दगी,
गर्म कपडे पहन के कमरे मे सिमटी ज़िन्दगी.
एक यह भी ज़िन्दगी,
ठंढी बियर की बोतल से जाम लड़ाती ज़िन्दगी,
कार के शीशे से धुंध हटाती ज़िन्दगी,
गर्म हीटर जलाकर पार्टियाँ मनाती ज़िन्दगी,
ठंढ मे भी फ्रिज मे आइस क्यूब ज़माती ज़िन्दगी.
कंकपाती सर्दियों मे सौ रंग दिखाती ज़िन्दगी
जूझ कर, उम्मीद से, अलमस्त होकर जीना बताती ज़िन्दगी.
पाती ज़िन्दगी को
प्रिय ज़िन्दगी
वैसे तो मज़े मे हूँ पर मन वेदना मे है. तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ. अरे न गलत मत समझना कोई गोला शिकवा नहीं करूंगा बस कई सालो से मन मे कोई कीड़ा कुलबुला रहा है. आज सोचा की तुमसे ही पूछ लिया जाये.
तो शायद अब तुम तैयार होगे, पूछूँ मैं? मैं तुमसे पूछना चाहत हूँ की तुमने खुद को इतना बेतरतीब क्यों बनाया है? मेरा आशय तुम्हारी सुन्दरता को लेकर नहीं है मेरा आशय तुम्हारी व्यावहारिकता से है. अशल मे क्या व्यावहारिक होकर आदमी तुम्हारे साथ नहीं रह सकता. दुनिया मे हर व्यक्ति ज़िन्दगी जी रहा है, गुज़ार रहा है, काट रहा है या कहें धकेल रहा है. पर कहीं भी संतुष्टि नहीं है. कहीं भी सत्य नहीं है. ज़िन्दगी की असलियत तो मैं कई बार देख चूका हूँ सच देखना चाहता हूँ. हेर मोड़ पे अपनी एक नई अशलियत को परखता हूँ, फिर आगे बढ़ जाता हूँ.पर बड़ी तम्मना है अपने सच को देखने की. आखिर क्यों है इतना घोलमाल क्यों तुमने अपने आपको अनगिनत पन्नो मे छुपा रखा है. परत दर परत खुलती हो पहेलियाँ बुझाती हो. कहीं तुम्हे अपने उपर गाने और लेख लिखवाने का शौक तो नहीं चढ़ा है. वैसे ऐसा हो भी तो इतने दिनों बाद जब तुम्हारे बारे मे इतना लिखा जा चुका है अब तो संतोष करो. इस दुनिया को सत्य दिखा दो.
तेज़ भागती इस दुनिया मे लोगों के चेहरे पर नित एक नई सूरत देख कर व्यथित हूँ मैं. खुद अपने आप से भी. क्यों हम सच को नहीं जी पते. क्या तुम्हे ही सच से नफ़रत है. अगर नहीं तो तुम इतना बेतरतीब क्यों हो की लोगों को रोज नए मुखौटे की ज़रुरत पड़ती है. आदमी के चेहरे पे आदमियत क्यों नहीं दिखती. वहां दिखती है तो सिर्फ मक्कारी, फरेब, झूठ, अहंकार और हंसी मुस्कराहट तो कभी कभार ही आती है उसमे भी कुटिलता. तुम क्यों ऐसी हो की लोग अपने आपको जैसे हैं उसी तरह रखें, मुखौटे की ज़रुरत न पड़े. मानता हूँ की तुम आदमी को तराशना चाहती हो पर ऐसा भी क्या तराशना की वह अपनी मौलिकता ही खो दे, आदमियत को ही भूल जाये.
ज़िन्दगी अगर हो सके तो जवाब देना. अब तक तुमने मुझे बहुत कुछ सिखाया है इतना और सिखा देना. वैसे तो दुनिया मे ज़िन्दगी पर बताने वालों की कमी नहीं पर फिर वही मुखौटे. सो अगर तुम ही मुझे बताओ तो बेहतर और हाँ सुना है की ज़िन्दगी इम्तहान लेती है. तो जो भी करना है ज़ल्दी करो, मेरे पास इतना धैर्य है नहीं कहीं रस्ते मे ही हौंसला न खो बैठूं
और हाँ हो सके तो थोडा खुद को भी सिम्पल कर लो. मेरा मतलब की लोगों से बहुत कठिन इम्तहान न लो, अब देखो न कितने इसी चक्कर मे तुम्हारा साथ छोड़ के निकाल लेते हैं. क्या तुम खुद इन्हें साथ नहीं रखना चाहते अगर हाँ तो मेरे इम्तहान के प्रश्नपत्र और कठिन तैयार करवा लो मुझसे इतनी जल्दी मुक्ति नहीं मिलनी. तो जवाब भेज देना जल्दी से, मेरा मतलब सबक सिखाओ मेरे मन की व्यथा मिटाओ.
वैसे तो मज़े मे हूँ पर मन वेदना मे है. तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ. अरे न गलत मत समझना कोई गोला शिकवा नहीं करूंगा बस कई सालो से मन मे कोई कीड़ा कुलबुला रहा है. आज सोचा की तुमसे ही पूछ लिया जाये.
तो शायद अब तुम तैयार होगे, पूछूँ मैं? मैं तुमसे पूछना चाहत हूँ की तुमने खुद को इतना बेतरतीब क्यों बनाया है? मेरा आशय तुम्हारी सुन्दरता को लेकर नहीं है मेरा आशय तुम्हारी व्यावहारिकता से है. अशल मे क्या व्यावहारिक होकर आदमी तुम्हारे साथ नहीं रह सकता. दुनिया मे हर व्यक्ति ज़िन्दगी जी रहा है, गुज़ार रहा है, काट रहा है या कहें धकेल रहा है. पर कहीं भी संतुष्टि नहीं है. कहीं भी सत्य नहीं है. ज़िन्दगी की असलियत तो मैं कई बार देख चूका हूँ सच देखना चाहता हूँ. हेर मोड़ पे अपनी एक नई अशलियत को परखता हूँ, फिर आगे बढ़ जाता हूँ.पर बड़ी तम्मना है अपने सच को देखने की. आखिर क्यों है इतना घोलमाल क्यों तुमने अपने आपको अनगिनत पन्नो मे छुपा रखा है. परत दर परत खुलती हो पहेलियाँ बुझाती हो. कहीं तुम्हे अपने उपर गाने और लेख लिखवाने का शौक तो नहीं चढ़ा है. वैसे ऐसा हो भी तो इतने दिनों बाद जब तुम्हारे बारे मे इतना लिखा जा चुका है अब तो संतोष करो. इस दुनिया को सत्य दिखा दो.
तेज़ भागती इस दुनिया मे लोगों के चेहरे पर नित एक नई सूरत देख कर व्यथित हूँ मैं. खुद अपने आप से भी. क्यों हम सच को नहीं जी पते. क्या तुम्हे ही सच से नफ़रत है. अगर नहीं तो तुम इतना बेतरतीब क्यों हो की लोगों को रोज नए मुखौटे की ज़रुरत पड़ती है. आदमी के चेहरे पे आदमियत क्यों नहीं दिखती. वहां दिखती है तो सिर्फ मक्कारी, फरेब, झूठ, अहंकार और हंसी मुस्कराहट तो कभी कभार ही आती है उसमे भी कुटिलता. तुम क्यों ऐसी हो की लोग अपने आपको जैसे हैं उसी तरह रखें, मुखौटे की ज़रुरत न पड़े. मानता हूँ की तुम आदमी को तराशना चाहती हो पर ऐसा भी क्या तराशना की वह अपनी मौलिकता ही खो दे, आदमियत को ही भूल जाये.
ज़िन्दगी अगर हो सके तो जवाब देना. अब तक तुमने मुझे बहुत कुछ सिखाया है इतना और सिखा देना. वैसे तो दुनिया मे ज़िन्दगी पर बताने वालों की कमी नहीं पर फिर वही मुखौटे. सो अगर तुम ही मुझे बताओ तो बेहतर और हाँ सुना है की ज़िन्दगी इम्तहान लेती है. तो जो भी करना है ज़ल्दी करो, मेरे पास इतना धैर्य है नहीं कहीं रस्ते मे ही हौंसला न खो बैठूं
और हाँ हो सके तो थोडा खुद को भी सिम्पल कर लो. मेरा मतलब की लोगों से बहुत कठिन इम्तहान न लो, अब देखो न कितने इसी चक्कर मे तुम्हारा साथ छोड़ के निकाल लेते हैं. क्या तुम खुद इन्हें साथ नहीं रखना चाहते अगर हाँ तो मेरे इम्तहान के प्रश्नपत्र और कठिन तैयार करवा लो मुझसे इतनी जल्दी मुक्ति नहीं मिलनी. तो जवाब भेज देना जल्दी से, मेरा मतलब सबक सिखाओ मेरे मन की व्यथा मिटाओ.
Friday, January 15, 2010
Wednesday, January 13, 2010
Tuesday, January 12, 2010
Tuesday, January 5, 2010
Friday, January 1, 2010
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