Tuesday, January 13, 2009

वक़्त और जख्म

सुना था की वक्त हर ज़ख्म भर देता है
पर न जाने क्यों मेरे ज़ख्म वक्त के साथ
और गहरे होते जा रहे हैं
भूलने की कोशिश तो बहुत की थी
भूले हुए लोग मेरी तनहाइयों के लुटेरे होते जा रहे हैं
ढूँढने लगा था मैं जिन्दगी की ज़द्दोज़हद में सुकून
पर ख़ुद से बचने के ये रास्ते भी अब अंधेरे होते जा रहे हैं
सोचता था दूरियों से धुंधली पड़ जाएँगी उनकी यादें
पर फासलों से मेरे जेहन में बसे अक्स -ऐ-यार
और सुनहरे होते जा रहे हैं
जला चुका था मै हर सबूत उनकी मोह्हबत के
पर उस आग से रोशन मेरे अंधेरे होते जा रहे हैं
अब मैं साथ नही चाहता हूँ किसी का
तो क्यों मेरे साथी ये सवेरे होते जा रहे हैं

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