देश में भारी आर्थिक असमानता, भयावह ग़रीबी व शोषण कोई नई बात नहीं है, और नई बात ये भी नहीं कि देश में स्वास्थय सेवाओं की स्थिति बहुत ही निराशाजनक और पतनशील है. जहाँ एक तरफ सार्वजनिक स्वास्थय सेवाएं वित्त की कमी, दवाईओं की कमी, आवश्यक वस्तुओं की कमी, कुशल कर्मियों की कमी से जूझ रही हैं. वहीं दूसरी तरफ स्वास्थय सेवाओं में निजी भागीदारी दिन पर दिन बढ़ रही है और इस निजी भागेदारी का मतलब है ग़रीबों के लिए इन सेवाओं का अपवर्जित(exclusion), महंगा और अप्राप्य होना. और शायद यही वजह है भारत के स्वास्थय सूचक (health indicators) बहुत ही ख़राब दशा को निरुपित करते हैं. और परिणाम स्वरुप भारत को मानव विकास सूचकांक(Human Development Index) में काफी नीचे स्थान मिलता है.
यह सर्वमान्य है कि स्वास्थय सेवाओं में घोर क्षेत्रीय असमानता है. इन असमानताओं को हम दोनों स्तरों के संकेतकों- प्रक्रिया और परिणाम संकेतकों के ज़रिये देख सकते हैं. देश की औसत स्वास्थ्य स्थिति बहुत ख़राब है. स्वास्थय पर प्रति व्यक्ति ख़र्च भी अंतरराष्ट्रीय मानकों से बहुत कम है. हमारा सार्वजनिक स्वास्थ्य ख़र्च(public health spending) दोनों रूपों में-सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा(share of GDP) और प्रति व्यक्ति खर्च(per capita), दुनिया में सबसे कम ख़र्च करने वालों देशों में से है. लेकिन अगर हम राज्यों को देखें तो यहाँ तीव्र असंतुलन नज़र आता है. इस पूरे स्पेक्ट्रम में एक तरफ वे राज्य हैं (जैसे- केरल, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु) जहाँ देश कि 18.8 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, और इनके स्वास्थ्य संकेतक(health indicators) अधिक विकसित मध्यम आय(more developed-middle income) देशों-वेनेजुएला, अर्जेटीना और सऊदी अरब के जैसे अथवा सामान हैं. और स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर बीमारू राज्यों (उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम, राजस्थान, बिहार और झारखंड) का समूह है जहाँ देश की लगभग 42 प्रतिशत जनसँख्या निवास करती है और इन राज्यों के स्वास्थय संकेतक उप-सहारा देशों और अन्य कम आय वाले देशों-सूडान, नाइजीरिया और म्यांमार आदि के अत्यंत क़रीब या यूँ कहें कि बराबर हैं.
राज्यों के बीच इस असंतुलन की वजह न सिर्फ़ परिणामों से संबंधित है बल्कि स्वास्थ्य व्यय का वित्तपोषण करने से भी सम्बंधित है. और चूँकि ग़रीब राज्यों में स्वास्थय पर, कम सरकारी ख़र्च का प्रावधान रहा है और यह कम स्वास्थय-व्यय भी असंतुलन का एक कारण है. मिसाल के तौर पर 2001-02 में, उत्तर प्रदेश में , जन स्वास्थ्य ख़र्च कुल स्वास्थ्य व्यय के प्रतिशत के रूप में 7.5 प्रतिशत (या 84 रुपये प्रति व्यक्ति) जबकि, मिज़ोरम में 89.2 प्रतिशत (या 836 रुपये प्रति व्यक्ति ). अफ़सोस की बात यह है कि देश के प्रमुख राज्यों में से कोई भी राज्य लोक स्वास्थ्य खर्च के बुनियादी स्तर यानि प्रति व्यक्ति ख़र्च 500 रुपये को हासिल न कर सका है.
क्षेत्रीय असमानताओं को चिकित्सा कर्मियों की उपलब्धता के परिप्रेक्ष्य में भी देख सकते हैं. पूरे देश में एलोपैथिक स्नातक डॉक्टरों की उपलब्धता केवल 0.6 प्रति हजार है. और ये उपलब्धता काफ़ी असम(uneven) है. दक्षिण के राज्यों में और अन्य अपेक्षाकृत अधिक विकसित राज्यों में डॉक्टरों का सांद्रण(concentration) अधिक है. मिसाल के तौर पर, पंजाब में डॉक्टरों की उपलब्धता उत्तर प्रदेश के मुक़ाबले पाँच गुना है. यही नहीं, इन डॉक्टरों का अभिसरण(convergence) शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में अधिक है बनिस्बत ग्रामीण क्षेत्रों के. इस प्रकार ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्र या तो कुछ हद तक डॉक्टरों से वंचित हैं या इन क्षेत्रों में डॉक्टरों की उपलब्धता कम है.
इलक़ायी गैर बराबरी को एक दूसरे ज़ाविए से भी देखा जा सकता है और यह है मेडिकल संस्थाओं और मेडिकल कालेजों की उपलब्धता. मेडिकल कालेजों की उपलब्धता भी चिकित्सा कर्मियों की तरह काफी असमान रूप से वितरित है. दक्षिणी के चार राज्यों में, पूरे देश के मेडिकल कॉलेजों के 63 प्रतिशत कॉलेज और पूरे देश की उपलब्ध कुल सीटों की 67 प्रतिशत सीटें मौजूद हैं. चिकित्सा कर्मियों की सबसे ज़्यादा कमी बीमारू राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़), उड़ीसा और हरियाणा के साथ साथ पूर्वोत्तर के राज्यों में हैं. स्वस्थ्य कर्मियों का नियंत्रण और निगरानी में कमी भी बहुत कुछ अनापेक्षित नतीजे देती है. डॉक्टरों, नर्सों, दंत चिकित्सकों और अन्य लोगों के लिए सांविधिक परिषदों क़रीब-क़रीब बेकार हैं.
चिकित्सकों, डॉक्टरों, चिकित्सा कर्मियों की अनुपलब्धता एवं कमी, चिकित्सा सम्बन्धी फंड्स की कमी, स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे की कमी और विधि व विनियमन की कमी, लोगों को निजी स्वास्थ्य सेवाओं को लेने को मजबूर करती है. और इसका ख़ामियाज़ा ग़रीब राज्य के ग़रीब लोगों को भुगतना पड़ता है. क्यूंकि ग़रीब राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थय सेवाओं का सरकारी प्रावधान या तो अनुपलब्ध है या अत्यंत अपर्याप्त है. इस प्रकार, सबसे गरीब राज्यों में, अस्पतालीकृत बीमारियों की वजह से ग़रीब परिवारों को वित्तीय संकट में फंसने की बहुत ही ज़्यादा संभाव्यता रहती है. एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार बिहार और उत्तर प्रदेश के अस्पताल में भर्ती क़रीब एक तिहाई से अधिक लोग चिकित्सा व्यय के कारण ग़रीबी की ज़द में आ गए.
भारत में, स्वास्थ के लिए जेबी खर्च(out-of-pocket expenditure) या निजी खर्च न सिर्फ ज़्यादा हैं बल्कि हाल के दिनों में तेजी से बढ़ा भी हैं. एनएसएसओ के सर्वेक्षण के अनुसार, 1995-96 और 2003-04 के बीच ग्रामीण अस्पताल में भर्ती लागत में 78 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि शहरों में अस्पतालीकरण की लागत में 126 प्रतिशत तक का इज़ाफ़ा हुआ. ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्वास्थय पर निजी ख़र्च अक्सर उन परिवारों को वहन करना होता है जो ये ख़र्च बर्दाश्त न करने की स्थिति में होते हैं. अतः जनसँख्या का वो पांचवा हिस्सा जो ग़रीबी रेखा के बिलकुल ऊपर है, को अगर कभी किसी गंभीर स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़े तो वे स्वतः ग़रीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे.
'चिकित्सात्मक दवाओं पर ख़र्च'(expenditure on therapeutic drugs) स्वास्थय ख़र्च की वह मद है जिसमें लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है. गोकि, स्वास्थय ख़र्च कुल जेबी ख़र्च का लगभग 75 प्रतिशत है, लेकिन इस ख़र्चे से उन लोगों कि हालत ज़्यादा ख़राब होती है जो लोग ग़रीब राज्यों निवास करते हैं. वजह बिलकुल साफ़ है- ग़रीब राज्य मतलब स्वास्थय पर कम सरकारी ख़र्च मतलब राज्य के निवासियों का ज़्यादा निजी ख़र्च. राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चिकित्सा व्यय में औषधियों का हिस्सा दोनों, आतंरिक रोगी(in-patient) व वाह्य-रोगी(out-patient) के रूप में काफी अधिक, लगभग 90 प्रतिशत रहा है. औषधियों पर यह बढ़ती व्यय न केवल नई पेटेंट व्यवस्था का प्रभाव दर्शाती है बल्कि भारतीय औषधि निर्माण क्षेत्र की अपर्याप्त विनियमन को भी दिखाती है.
असमानताओं के विभिन्न स्रोतों और कारणों पर दृष्टिपात करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थय सेवा के क्षेत्र में सरकार को आगे आना ही नहीं बल्कि पूरे स्वास्थय सेवा को अपने हाथ में लेना होगा. और इन सब कामों के लिए संसाधनों की कमी का रोना रोना और यह कहना कि एक ग़रीब देश में संसाधनों की कमी ही मौलिक बाधा है, एक बेबुनियाद बात है. हम ज़्यादा दूर नहीं बल्कि अपने पड़ोसी अपेक्षाकृत कम आमदनी वाले देश- बंगलादेश और श्रीलंका से सबक़ ले सकते हैं जो अपनी अपेक्षाकृत कम आमदनी के बावजूद स्वास्थय के संदर्भ में हमसे ज़्यादा विकसित हैं.
Monday, August 10, 2009
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