Thursday, February 26, 2009

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........

इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ.........
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ........
तो क्या हुआ जो जिन्दगी हर कदम पर मारती है ठोकर।
हर बार फ़िर संभल कर मै उसे एक अरमान बनने निकला हूँ।
डूबता हुआ सूरज कहता है मुझसे... कल फ़िर आऊंगा।
मै उस कल के लिए आसमान बनने निकला हूँ।
इस शहर की भीड़ में पहचान बनने निकला हूँ..........
कहीं टूटा है एक तारा आसमान से उसे चाँद बनने निकला हूँ........

1 comment:

समयचक्र said...

bahut sundar rachana hai "ek shahar ki galayo me pahachan banane nikala hun"
dhanyawad.