तुम शायद नही जानती ,
तुम्हारे 'तुम' होने से मुझे क्या फर्क पड़ता है ,
पर तुम्हारा तुम होना ही मुझे देता है एक संबल ,
एक आशा,एक अनुभूति ,
जिसके सहारे मैं निकल पड़ता हूँ,
इस जहाँ में , एक मंजिल की खोज मे,
निर्भय,निडर,निश्चिंत होकर
क्योंकि,
जब भी मेरे सामने मुसीबतों के पहाड़ आते हैं,
यूं लगता है तुम यहीं कहीं हो,
मेरे आस पास ,
देख रही हो मेरे कामों को,
और
मेरे कुछ भी ग़लत करने पर
आकर टोकोगी मुझे,
वैसे ही जैसे बचपन मी टोका करती थी,
मरोड़ देती थी तुम मेरे कानो को,
main रोता रहता था,
पर आज में जान गया हूँ ,
तुम जो कुछ भी करती हो ,
मेरे भले के लिए ही होता है,
आख़िर
ऐसा क्यों न हो ,
आख़िर
तुम हो मेरी
मेरी 'माँ'
by:kaushalendra
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