Tuesday, May 20, 2008

लड़की

एक लड़की,खोल खिड़की

गै थी भाग,खेलने के लिए

पर

वह नन्हा ह्रदय

डर रहा था,

अपनी माँ के खौफ से।

फ़िर भी-

उसकी अंतरात्मा उसको उत्साहित कर रही थी

एक अंजना अवलंबन पाकर,

जुट गै वह खेकने मे।

चौंक पड़ी वह अपना नाम सुनकर अचानक

शायद

किसी ने पुकार दी थी?

हाँ,

यह उसकी माँ के क्रोध का प्रभंजन था

वास्तव मे,

उश्की माँ ने पुकार दी थी उसे

कांपता ह्रदय

खड़ा हो गया माँ के सामने,

माँ की क्रोध्पूरित नेत्रों की शिकार

देख रही थी पिता को वह

अचानक.....

पिता रूद्र मे बदला

एक... दो...

कई चीखें रोक रही थीं छड़ी को

मगर.....

फ़िर भी ख़त्म नाही हुआ यह कहर

अंत मे...

माँ के इशारों पर

काम करती रही वह

जुट गै थी माँ की तयारियों मे

क्योंकि

उदघाटन करना था इन्हें

किसी बालिका विद्यालय का

एक कप चाय पहुँचनी थी पिता को

क्योंकि

बल मनोविज्ञान पर लेक्चर देने के लिए वह

स्क्रिप्ट तैयार कर रहे थे ।

अंत में...

माँ जा चुकी थी,

पिता लिख रहे थे ,

और वह बढ़ रही थी.......

जूठे बर्तनों की तरफ़।

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