पहाडों की हँसी वादिओं में
वह स्वछन्द हवा और
चिडिओं की चहचाहट के बीच
मेरा अन्तर मन कुछ कह रहा था
जिसकी अंतस ध्वनि समझाने में
अपने आपको असमर्थ पा रहा था
मन की उथल-पुथल के बीच
अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए
कोई निर्णय नही ले पा रहा था
ऐसा क्यों हो रहा था
प्रश्नों के जबाब पाने को बेताब था
और देख रहा था उन वादिओं की ओर
जो थी मेरे आस-पास
जो दे रही थी दिलासा
बस इसके बाद क्या था
एक ठंडी सी बयार चलने लगी
और मन पुलकित सा हो गया
फ़िर मैं समझ गया
और मन शांत हो गया
ऐसा एहसास होने लगा कि
इस भरी दुनिया में प्रकृति का सानिध्य
पाकर मैं प्रसन्न था
दूसरों को सुख देती प्रकृति आज
ख़ुद अपने अस्तित्व को लेकर
संरक्षण की कर रही है गुहार ..........
सौजन्य से :- अशोक गंगराडे
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