साथ तो चले थे मगर जाने कब जाने कब तुम दामन छुडा बैठे
गिला गर था कोई तो हमसे कहा होता
यूँ गैरों से शिकवा तो न किया होता
रंजिशें कुछ तो और बढ़ाई होती
अधूरे इश्क की तरह अधूरी दुश्मनी तो निभाई होती
ना था इश्क मुझसे न सही औरों से दोस्ती तो न बढ़ाई होती
तेरे ही ख्वाबों में रात गुजरती है तेरे ही अरमान से सेहर होती है
कम से कम अपनी चाहत तो मेरे दिल से मिटाई होती
मैंने कई अरमां सजा रखे थे अपनी पलकों पे
जाने से पहले इन्हें आग तो लगाई होती
रास्ते अलग करने से पहले
मुझे मेरी मंजिल तो बताई होती
तेरे ही अरमानों से सजा रखे थे मैंने अपने दरों-दीवार
जाने से पहले इस समशान में इनकी लाश तो दफनाई होती
शिकवे करने के लिए गैरों के पास जाने की जरूरत क्या थी
कभी अपनों के सामने तो बात उठाई होती
दर्द तेरे बख्शे हुए ज़ख्मों का नहीं
तकलीफ तो तेरी दी हुई खुशियाँ देती हैं
तेरे साथ गुज़ारा हर लम्हा याद है मुझे
जाने से पहले मेरे जेहन में बसी अपनी चाहत की इबारत तो मिटाई होती
मुझे बर्बाद ही करना था तो मुझसे सिर्फ एक बार कहा होता
यूँ जहाँ में तेरी रुसवाई तो न होती
मालूम है मुझे कुछ मजबूरियाँ रही होगीं तेरी
पर मुझसे अपनी हालत तो न छुपाई होती
मैं तेरा प्यार नहीं न सही;तलबगार तो हूँ
अपने आशिक की ये हालत तो न बनाई होती
Sunday, June 22, 2008
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