शाम झरोखे पे बैठा घर लौटते परिंदों को देख रहा था
कुछ पुराने आशियाने याद आ गए
वो गली का मोड़ ,नीम का पेड़
चाय की दुकान, खेल का मैदान
और कुछ साथी पुराने याद आ गए
जब हर सुबह हसीन
हर शाम रंगीन थी
न फिक्रे दुनिया थी
न गमे यार था
हर मौसम मौसमे-बहार था
जब हर कोई अपना था
सच लगता हर सपना था
फ़िर आज वो ज़माने याद आ गए
गुज़रती थी हर शाम यारों के साथ
कभी गली के नुक्कड़ पे
तो कभी चाय की दुकान पे
वो कॉलेज के गलियारे
जहाँ मिलते थे यार प्यारे
और बुनते थे सपने ढेर सारे
जहाँ सजाते थे हम खाबों की महफिलें
फिर वो ठिकाने याद आ गए
अब धुंधलका सा छा रहा है
जाने फिर क्या याद रहा है
गुज़र चुका है जो ज़माना
फिर से जेहन पे छा रहा है
धुंधलका बढ़ता जा रहा है
धुंधलका बढ़ता जा रहा है.....
Saturday, July 12, 2008
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1 comment:
aapki rachanaye itani badhiya hai. aese kaise ho gaya ki ab tak aapki rachanao ko mene padha nahi. bhut sundar likhate hai. jari rhe.
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