Wednesday, July 2, 2008

अंजान सफर

मैं कहाँ इन रास्तों को जानता था
कब मैं इनको अपना मानता था
फ़िर भी जाने किसके इशारे पर चल रहा हूँ
जाने क्यों अपने मन को कुचल रहा हूँ
जानता हूँ मिलेंगी मंजिलें भी और
हाँसिल होंगे मकाम भी
पर कब मैं ये सब चाहता था
है नहीं चाहत मुझे उस जहाँ की
जहाँ इंसान को है फ़िक्र नहीं इंसान की
जहाँ हर चेहरे पे मुस्कान तो है पर नाम की
जहाँ हर कोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है
कामयाबी के सफर में दोस्ती और रिश्तों को कुचलने को
जिंदगी का फलसफा मानता है
जहाँ आंखों में प्यार नहीं सिर्फ़ सपने हैं
जहाँ हर लम्हा एक नई जंग है
जहाँ दिल बनारस की गलियों से भी ज्यादा तंग हैं
जहाँ जिंदगी ख्वाहिशों के जंगल में कैद है
जहाँ हर मोड़ पे ग़मों की एक नई पौध है
जहाँ हर खुशी नीलाम होती है
ढूंढते-ढूंढते थक गया हूँ
पर मिलती नहीं कोई ऐसी डगर
जहाँ इंसानियत नहीं गुमनाम होती है





2 comments:

मीत said...

badhiya hai bahut badhiya.. likhte rahein

Anonymous said...

bhut sundar. likhate rhe.