मैं कहाँ इन रास्तों को जानता था
कब मैं इनको अपना मानता था
फ़िर भी जाने किसके इशारे पर चल रहा हूँ
जाने क्यों अपने मन को कुचल रहा हूँ
जानता हूँ मिलेंगी मंजिलें भी और
हाँसिल होंगे मकाम भी
पर कब मैं ये सब चाहता था
है नहीं चाहत मुझे उस जहाँ की
जहाँ इंसान को है फ़िक्र नहीं इंसान की
जहाँ हर चेहरे पे मुस्कान तो है पर नाम की
जहाँ हर कोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है
कामयाबी के सफर में दोस्ती और रिश्तों को कुचलने को
जिंदगी का फलसफा मानता है
जहाँ आंखों में प्यार नहीं सिर्फ़ सपने हैं
जहाँ हर लम्हा एक नई जंग है
जहाँ दिल बनारस की गलियों से भी ज्यादा तंग हैं
जहाँ जिंदगी ख्वाहिशों के जंगल में कैद है
जहाँ हर मोड़ पे ग़मों की एक नई पौध है
जहाँ हर खुशी नीलाम होती है
ढूंढते-ढूंढते थक गया हूँ
पर मिलती नहीं कोई ऐसी डगर
जहाँ इंसानियत नहीं गुमनाम होती है
Wednesday, July 2, 2008
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2 comments:
badhiya hai bahut badhiya.. likhte rahein
bhut sundar. likhate rhe.
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