Monday, July 21, 2008

इक खामोश समंदर देखा है

इस शोर-शराबे भरे शहर में
मैंने इक खामोश समंदर देखा है
जहाँ इंसान को इंसान की परवाह नहीं
ऐसा इक मंजर देखा है
मिलती नहीं है जिन्दगी जहाँ पर
इंसानों की उस बस्ती के अन्दर देखा है
जहाँ नहीं सुनी जाती कोई फ़रियाद
ऐसा इक मन्दिर देखा है
हर रोज़ बनते-बिगड़ते रिश्तों का
इक अजब बवंडर देखा है
अब तो याद भी नहीं क्या-क्या देखा था
पर इतना जानता हूँ
मैंने हर मोड़ पर दम तोड़ता हुआ
एक कलंदर देखा है

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