सोचता हूँ कब बदलेगी ये फ़िज़ा
और कब थमेगा
आतंक और दहशत का ये सिलसिला
क्यों है उजड़ी बस्तियाँ और
क्यों हैं वीरां गुलिस्तां
क्यों है भीगी हर माँ की आँखें
क्यों है बिलखती बहुएँ-बेटियाँ
है हर तरफ फैली एक अजब सी खामोशी
हर चेहरे पर है एक अजब सी उदासी
हर आँख में पानी है उमड़ा
फिर भी है हर नज़र प्यासी
हो रही रुसवा इंसानियत हर ओर
हैवानियत है मुस्कराती
ढूँढने पर भी नहीं मिलता
जिन्दगी का नामोनिशाँ
मौत हर जगह आसानी से मिल जाती
कोई जा के कह दे उस ऊपर वाले से कि
तेरे इस जहाँ में अब
कहीं भी तेरी सूरत नज़र नहीं आती
क्या तुझे अपने बन्दों की ये हालत नज़र नहीं आती
Sunday, July 27, 2008
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1 comment:
हर्ष जी,बहुत सार्थक रचना लिखी है।
हैवानियत है मुस्कराती
ढूँढने पर भी नहीं मिलता
जिन्दगी का नामोनिशाँ
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