Tuesday, July 29, 2008

अल्फाज़ बहुत हैं

अल्फाज़ बहुत हैं
सुनने वाला कोई नहीं
ज़ज्बात बहुत हैं समझने वाला कोई नहीं
क्या कहें किससे कहें सुनने वाला कोई नहीं
खामोश मेरी हर तन्हाई है
जाने क्यों कई रोज़ से तेरी याद नहीं आई है
एक अज़ीब सी रग्बत है दिल में आजकल
लगता है तुझे भी कई दिनों से मेरी याद आई नहीं है
तारीखें बदलती जा रही हैं
वक्त पर कुछ थम सा गया है
तू गया था जब छोड़ मुझको
वो मंज़र जेहन में कुछ जम सा गया है
लगता है फ़िर सज़ा ली हैं तूने महफिलें
मेरे घर में आज कुछ मातम सा रहा है
लगता है तुझे ये भी याद नहीं कि
कोई कभी तेरा हमदम भी रहा है

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

रचना में अपने मनोंभावो को बखूबी अभिव्यक्त किया है।
वो मंज़र जेहन में कुछ जम सा गया है
लगता है फ़िर सज़ा ली हैं तूने महफिलें
मेरे घर में आज कुछ मातम सा रहा है
लगता है तुझे ये भी याद नहीं कि
कोई कभी तेरा हमदम भी रहा है
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